उपासना पद्धति नहीं जीवन संस्कृति है धर्म


संजय तिवारी
अध्यक्ष भारत संस्कृति न्यास , नयी दिल्ली

9450887186
मेल : sanjay24.1967@gmail.com


भारतीय चिंतन परम्परा और संस्कृति में धर्म शब्द का अर्थ बिलकुल स्पष्ट है। भारतीय शास्त्र जब अस्तित्व में आये तब धरती पर मज़हब या पंथ जैसे विषय नहीं थे। भारतीय मनीषियों ने धर्म को बड़े ही व्यवस्थित और सांस्कृतिक रूप से देखा और समझा है। हमारे चिंतन में धर्म का अर्थ सीधा मनुष्य के दायित्व से जुड़ा है। हमारी समस्त शास्त्रीय परम्पराये भी इसे इसी रूप में प्रतिपादित कराती है। वेदों से लेकर श्रुतियो , स्मृतियों , पुराणों और इतिहास तक में तक में धर्म का मतलब व्यक्ति के दायित्व से है। हमारी संस्कृति में बहुत ही स्पष्ट है। प्रत्येक व्यक्ति का उसकी उम्र , उसके पद ,उसकी रूचि ,उसके रिश्ते , उसके संबंधों के आधार पर उसके धर्म निर्धारित कर दिए गए है। उदाहरण के लिए एक ही व्यक्ति का एक पुत्र के रूप में अलग धर्म होता है , पिता के रूप में अलग धर्म होता है , पति केरूप में अलग धर्म है , भाई के रूप में अलग धर्म है , जेठ के रूप में अलग धर्म है , देवर के रूप अलग धर्म है , चाचा के रूप में अलग अलग धर्म है , दादा के रूप में अलग धर्म है , जीजा के रूप में अलग धर्म है , साले रूप में अलग धर्म है , स्वसुर के रूप में अलग धर्म है। यही स्थिति स्त्री के लिए भी है। हर पारिवारिक और सेनाजीक भूमिका में भी अलग अलग धर्म तय है। इसे कभी अलग से बताना नहीं पड़ता। इन सभी धर्मो के लिए इतनी सक्षम सांस्कृतिक व्यवस्था तय है की हर आदमी सम्बंधित भूमिका में आते ही उसका स्वयं निर्वाहन करने लगता है। इसी को भारतीय जीवन दर्शन भी कहा गया है।
आज समाज में जिस प्रकार से धर्म शब्द का दुरूपयोग किया जा रहा है और गलत व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है उसे देख कर क्षोभ होना स्वाभाविक है। इसमे हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों की बुद्धि पर भी तरस आती है। उन्हें यह तो विचार करना ही चाहिए की जब शास्त्रो में धर्म शब्द का उपयोग किया गया तब धरती पर पंथ या मज़हब या रिलिजन जैसे तत्त्व नहीं थे। इन तत्वो का विकास सभ्यता के विकास के दौर में उपजे संघर्षो के साथ हुआ है। भारत के शास्त्र किसी समुदाय विशेष के लिए नहीं लिखे गए। भारत के शास्त्रो में जो कुछ लिखा गया है वह मनुष्य के जीवन को सुसंस्कृत बनाने के लिए लिखा गया है। उसका किसी मज़हब , पंथ या रिलिजन से कोई नाता नहीं है। इसीलिए उसको सनातन की संज्ञा दी गयी है। भारतीय शास्त्र की समूची संवेदना संपूर्ण मानव समाज के लिए एक सामान है। उसमे कोई हिन्दू , मुसलमान , सिक्ख , ईसाई , यहूदी , पारसी या अरबी या अमेरिकन नहीं है। भारतीय शास्त्र हमेशा विश्व वन्धुत्व की बात करते है। भारत के शास्त्र शाश्वत मूल्यों की बात करते है जो धरती के हर मनुष्य पर सामान रूप से लागू होते है। हमारे शास्त्रो की समझ सनातन है। अनादि है। यहाँ कोई जाती , पंथ , मज़हब या सामुदायिक विभाजन नहीं है। यहाँ किसी प्रकार का मानव भेद नहीं है।


भारतीय शास्त्रो में से केवल एक अत्याधुनिक शास्त्र श्रीमद्भागवतगीता को ही ले लीजिये। संपूर्ण गीता को ठीक से पढ़ डालिये। आपको कही कोई जाती या पंथ या समाज के विभाजन का कोई चिन्ह यहाँ नहीं मिलेगा। पूरी गीता केवल धर्म और अधर्म के दो पाटो के बीच उलझी हुई मानवता को अधर्म से मुक्ति का ही आख्यान है। यहाँ एक तरफ दायित्व , न्याय के पक्ष है और दूसरी तरफ वह पक्ष है जो अपने दायित्व से विमुख है। जब भी मनुष्य अपने दायित्व से विमुख होगा तो वह स्वतः ही अन्याय के रास्ते पर चलने लगेगा। गीता इसी अन्याय के विरुद्ध खड़ा होने का सन्देश है। जो अपने धर्म के आधार पर जीवन जीना चाहते है और अपने दायिव पोरे करने भर की व्यवस्था चाहते है जब उन्हें उनके इस कार्य में बढ़ा डाली जाती है और अधर्म अपना चुके लोग उन्हें समाज में अपमानित करने लगते है तब धर्म को अधर्म के विरूद्ध लड़ने के लावा कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता। यह मानव इतिहास का ऐसा उदाहरण है जिसका कोई दूसरा प्रमाण अब तक नहीं मिला है। गीता शुरू होती है ध अक्षर से और ख़त्म होती है म अक्षर पर। भारतीय संस्कृति और चिंतन परम्परा के आचार्यो के मुताबिक़ इन्ही ध और म शब्दो के बीच जो रचना है उसी में आधा भाग उस विकृति का भी है जो अधर्म की ओर मनुष्य को ले जाती है। उसी आधार को काम करने के बाद जो आधा र बचता है वह जब ध और म के बीच व्यवस्थित होता है तब धर्म की स्थापना होती है।
गीता का प्रथम श्लोक है -

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥

गीता का आखिरी श्लोक है -

यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।

धर्मक्षेत्रे से शुरू होकर गीता नीतिर्मतिर्मम पर समाप्त होती है। ध से म तक की इसी यात्रा में भगवान श्री कृष्णा ने खुद के 574 श्लोको माध्यम से केवल धर्म को ही समझाया है। इन्ही प्रथम और अंतिम श्लोको में और भी बहुत सी बाते छिपी है। प्रथम श्लोक का धर्म और अंतिम श्लोक का मम मिल कर मम धर्म अर्थात स्वधर्म को परिभाषित करता है। यही प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म है। यह प्रत्येक मनुष्य के लिए है। कृष्ण नीति का यही सार तत्त्व है। स्वधर्म को पूरी भारतीय संस्कृति अंगीकार करती है और सभी मनुष्यो से अंगीकार करने को कहती है। यही भारत की सांस्कृतिक विरासत भी है। और यह वह उदाहरण भी है जो विश्व को साफ़ साफ़ सन्देश देता है की जब भी धर्म पर अधर्म का अत्याचार बढ़ेगा , धार को उससे लड़ना ही पड़ेगा। जिस महाभारत के युध्दग गीत का एक बहुत ही छोटा सा अंश यह गीता है उस युद्ध के बाद केवल धर्म ही स्थापित हुआ। अधर्म को घनघोर पराजय मिली, यद्यपि हज़ारो ऐसे विद्वान् और आचार्य भी थे जिनसे भारत को बहुत कुछ सीखने को मिलता है पर वे चूँकि अधर्म के पक्ष में खड़े थे इस लिए उन्हें मरना ही पड़ा। यद्यपि वे बड़े ही चतुर , गुणी, ग्यानी , विद्वान् , निपुण , मर्मज्ञ , और श्रेष्ठ भी थे , फिर भी अधर्म के पक्ष में लडे और अधर्म का कलंक लेकर ही धरती से विदा हुए।

आज केवल भारत ही नहीं वरन दुनिया में धर्म शब्द का अतिशय दुरूपयोग किया जा रहा है। भारत में ही तथाकथित बुद्धिजीवी , विद्वान् , लेखक , मीडियाकर्मी , राजनीतिज्ञ , विचारक , चिंतक और खुद को सामाजिक कार्यकर्ता कहने वाले लोग जिस प्रकार से धर्म शब्द का दुरूपयोग कर भारतीयता को कालांकित करने का प्रयास कर रहे है वह दुर्भाग्यपूण है। उन्हें धर्म और मज़हब या पंथ का अंतर ही नहीं मालूम। खुद को अति स्टूडियस और स्कॉलर होने का दावा करने वाले इन लोगो को यह क्यों नहीं पता की जब वेद , उपनिषद् , पुराण , स्मृत्यो में धर्म शब्द लिखा जा रहा था तब धरती पर आदमी यानी मनुष्यता को खंड खंड बांटने वाले पंथो या मज़हबो का कोई अस्तित्व था ही नहीं। यह भी विडम्बना ही है की इन विन्दुओ को लेकर भारत के उस समाज में भी कोई हलचल नहीं होती जिन पर यह दारोमदार है कि वस्तुस्थिति की गलत व्याख्या हो तो वे उसे सुधारे। भारत के शिक्षालयों में भी एक से बढ़ कर एक गलत परम्पराये विक्सित की जा रही है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत के प्राचीन वांग्मय सरकारों और शिक्षाविदों के लिए साम्प्रदायिक लगते है। जो मनुष्यता के धर्म की शिक्षा के ग्रन्थ है वे साम्प्रदायिक सकते है। लेकिन यह तो दुर्भाग्य है की जो लोग देश के महज़ 70 सालो का शुद्ध इतिहास तक नहीं लिख पाए आज वे हमारी श्रुतियो , स्मृतियों , पुराणों और हमारे ही इतिहास को हमसे दूर करने में जुटे है।

यह गंभीर चिंता का विषय है की हमारे विश्वविद्यालयो में संस्कृति और सभ्यता की शिक्षा की आज तक कोई सटीक व्यवस्था नहीं हो सकी है। स्वाधीन भारत में शिक्षा को हमारी राजनीतिक व्यवस्था ने बहुत ही उपेक्षा के भाव से देखा है। अब तो केवल नौकरी देने वाली शिक्षा की वकालत ही की जा रही है। व्यवस्था ऐसी विक्सित की जा रही है की आने वाली पीढियां असली भारत को समझ ही न सके। पाठ्यक्रमो को तोड़मरोड़ कर ऐसा बनाया जा रहा है जिसमे किसी भी दशा में भारतीयता के तत्त्व बचने न पाए। न भाषा का शऊर देखा जा रहा है न ही व्याकरण की जगह बची है। विदेशी नक़ल में मशगूल कथित विद्वानों को भारत को पढने और समझने की भी जरूरत नहीं महसूस होती। यह सच में गंभीर चिंता की बात है की धर्म जैसे शब्द की गलत और अनर्गल व्याख्या पर भी कभी कोई स्वर देश में मुखर होता नहीं सुनाई पड़ता।

वस्तुस्थिति यह है की जो संस्कृति मानव का कल्याण करे वही धर्म है , जो मानव को विनष्ट करे वही अधर्म है।
धर्म और अधर्म की इतनी सामान्य और सटीक परिभाषा आज के बुद्धिजीवियों को समझ में आती। उन्हें यह क्यों नहीं समझ में आता की अधर्म का साथ देने के कारण भीष्म जैसे महा पुरुष को भी कृष्ण ने नहीं बख्शा। केवल अधर्म के साथी होने के कारण कर्ण , द्रोणाचार्य जैसो को अपमान भी सहन पड़ा और मारे भी गए। विद्वान लोग यदि गीता को ही ठीक से समझने की कोशिश करे तो बहुत सी बाते साफ़ हो जाती है। महाभारत का युद्ध किन्ही दो राष्ट्रों , दो राज्यो , या दो सभ्यताओ के बीच नहीं लड़ा गया। यह युद्ध केवल एक ही परिवार के दो मानसिकता वाले लोगो के बीच लड़ा गया। अब यह सोचने की बात है की केवल एक परिवार का आतंरिक युद्ध किस प्रकार से तत्कालीन सभ्यता और मानव इतिहास का सबसे भीषण युद्ध बन गया। आखिर कारण क्या था।एक ही परिवार के आंतरी मामले को लेकर इतना विशाल युद्ध कैसे संभव हो गया। व्याख्या में जाएंगे तो बहुत श्रम और समय लगेगा। इसे संक्षेप में इस रूप में ही समझ सकते है की यह सब केवल धर्म और अधर्म के बीच का ही संघर्ष था जिसमे उस काल की समस्त सभ्यताए शामिल हो गयी थी। धर्म और अधर्म का ऐसा बटवारा इतिहास में कही और न दीखता है ना ही पढने को ही मिलता है।

महाभारत काल के समस्त साहित्य और श्रुतियो के अध्ययन करने वाले विद्वानों का भी मत है की उस काल में प्रजा को अपने राजा से कोई शिकायत नहीं थी। कोई व्यक्ति नैतिक आधार पर राज्य की गद्दी पर विराजमान है या अनैतिक आधार से सत्ता के शिखर पर है , इससे प्रजा को कोई लेना देना नहीं था। प्रजा को जरूरत की हर चीजे मिल रही थी और वह संतुष्ट थी। ऐसा महाभारत कल भारत को समझने से लगता है की दुर्योधन जैसे राजा से भी प्रजा को कोई शिकायत नहीं थी। यानी समाज इतना व्यक्ति केंद्रित संस्कृति का शिकार था की उस काल में हर आदमी को केवल अपनी संतुष्टि और सुख से मतलब था। उस समय किसी को इस बात की चिंता नहीं थी की क्या हो रहा है , इसको भी जानने की कोशिश की जाय। व्यक्ति केंद्रित उस सभ्यता में अनैतिकता और अधर्म का ही चार्म था की जब द्रौपदी के शरीर से वस्त्र हटाने की घटना हुई तो समाज ने इसे केवल राजपरिवार का आपसी विवाद माना। इतनी बड़ी और वीभत्स घटना पर भी समाज में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। जाहिर है की सभ्यता में यह अनैतिकता का ही चरम था। अब ऐसी सभ्यता और समाज भला क्या अपेक्षा की जा सकती थी। ऐसे समाज और सभ्यता को नष्ट होना ही चाहिए था और कृष्ण ने यही कार्य किया। उन्होंने उस पूरी अधर्म वाली सभ्यता को नष्ट करने के लिए ही अर्जुन को तैयार किया।


लगभग साढ़े पांच हज़ार साल बाद जब महाभारत के भीषण युद्ध के सोचते है तो और भी बहुत सी बाते सामने आती है। कृष्ण द्वारा उस पूरी सभ्यता को ख़त्म कर देने के बाद जिस भारत का निर्माण किया गया उस भारत में तीन हज़ार साल तक अधर्म के सम्मान पाने का कोई इतिहास नहीं मिलता। कृष्ण के तीन हज़ार साल बाद भारत की धरती पर बुद्ध और महावीर जैसे महापुरुषों का अभुदय इतिहास में मिलता है। उस काल में भी शब्द को लेकर कोई संशय नहीं दीखता है। बुध और महावीर के बाद सीधे चाणक्य आता है और तब हम की भारत की धरती पर अधर्म यानी अनैतिकता प्रचुर मात्रा में दिखनी शुरू जाती है। चाणक्य के दो सौ साल बाद शुरू होता है ईसा के अभुदय का काल और अस्तित्व में आती है क्रिश्चियनिटी। ईसा के 600 साल के बाद इस्लाम का जन्म होता है। इन दो समुदायों , नयो उपासना पद्धतियों के अस्तित्व के बाद से ही धर्म शब्द की अतार्किक और व्याख्याए होने लगी है। भारत के सनातन मानव धर्म को उपासना पद्धतियों का पर्याय बना कर प्रस्तुत किया जाने लगा और उसी क्रम को भारत के कथित बुद्धिजीवी भी आगे बढ़ा रहे है।

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