शत्रु नहीं हो सकती प्रकृति विकसित  करनी होगी आपदा प्रबंधन की नयी सभ्यता 


ड़ॉ अर्चना  तिवारी 
सचिव, प्रगति 
अध्यक्ष , गृहविज्ञान विभाग 
गंगोत्री देवी महिला पी जी कॉलेज , गोरखपुर 
9450887187 



मैंने नदियों को सिसकते देखा है।  मैंने नदियों को रोते  बिलखते देखा है।  मैंने नदियों को किकुर किकुर कर भागते देखा है।  मैंने नदियों को टप्प टप्प आंसू बहाते देखा है।  मैंने नदियों को चिंघाड़ते , भगतें देखा है।  मैंने नदियों को कराल काल बनते देखा है।  मैंने नदियों को सोते हुए देखा है।  मैंने नदियों को जागते हुए देखा है मैंने नदियों को रोते हुए देखा है।  मैंने नदियों को खाते , खिलाते , पालते , पोसते  जीवन को सवारते भी देखा है ,और हँसते गाते जीवन को उजाड़ते भी देखा है। मैंने पहाड़ो को तड़पते देखा है।  उनके सीने में लगी बारूदी सुरंगों को फटते देखा है।  पहाड़ो को बिलखते देखा है।  पहाड़ो को कराहते देखा है।  मैंने पहाड़ो के रोने की आवाज़े सुनी है।  मैंने तड़पते रेगिस्तानी बंज़र देखे है।  मैंने पहाड़ो के सीओ को छलनी करती मशीनों को दौड़ते भागते देखा है।  मैंने जंगलो में आग लगते देखा है। मैंने जंगलो को काटते देखा है मैंने जंगलो से जानवरो को भागते देखा है।  मैंने जंगलो पर काबिज़ होते मशीनी तंत्र के जत्थे देखे है।  मैंने जंगलो के बसेरो को उजड़ते देखा है।  मैंने साड़ी हरियाली को आंसुओ में डूबते देखा है।  मैने हरी भरी धरती को बंजर होते देखा है।  मैंने खेतो को सूखते देखा है।  मैंने खेतो को डूबते और बहते देखा है।  मैंने शहरो और गावो को भी उजड़ते देखा है।  मैंने जानवरो के संग मनुष्यो को डूबते उतराते देखा है।  मैंने डूबे गावो में पेड़ो पर चढ़ कर जान बचाने की कोशिश करते इंसानो और जानवरो को एक ही दाल पर सिकुड़े देखा है।  मैंने बाढ़ में एक ही पेड़ पर जान बचाते साँप, आदमी और शेर को भी देखा है।  यकीन कीजिये जनाब। ... मैंने सच में प्राणी में प्रलय को देखा है। 
भूकंप हो , सुनामी या फिर बाढ़ , हर कही तबाही का मंजर एक जैसा ही होता है। ऐसा नहीं है की ये आपदाये केवल इस समय ही आने लगी है।  ये पहले भी आती थी और आगे भी आती रहेंगी।  इन्हें रोक पाना तो असंभव है पर इनके आने देने के बीच पेड़ , पौधे , मवेशी , खेत खलिहान और इंसान को बचाये रखने की विधि तो आणि ही चाहिए।  सृष्टि ने हमें प्रकृति दिया।  सृष्टि ने ही हमें संस्कृति भी दिया।  उसने कहा - प्रकृति से लो और संतुलन बनाकर खुद के जीवन को सुखमय करो।  लेकिन हमने क्या किया।  प्रकृति का खूब दोहन किया - इतना की उसके और हमारे बीच विकृति नाम की एक अत्यंत गहरी खाई पैदा हो गयी।  जिस प्रकृति के साथ हमें जीने की सामग्री मिली थी उसी प्रकृति को हमने शोषण कर इतना विकृत कर डाला की आज वह हमें बचाने की भी ताकत खो चुकी है।  प्रकृति हमारी दुश्मन नहीं है।  प्रकृति के अवयव हमारे दुश्मन नहीं हैं। नदिया हमारी दुश्मन नहीं है।  पर्वत हमारे दुश्मन नहीं है।  खेत कखालीहां , पेड़ पौधे , जानवर, पशु , पक्षी सभी का निर्माण मनुष्य के सुन्दर जीवन के लिए ही किया गया है लेकिन हमने इनके साथ कैसा व्यवहार किया।  आज सर्वाधिक सोचने की आवश्यकता इस बात की है।  हमने इन अवयवो के साथ क्या किया।  आज इस सृष्टि में केवल मनुष्य नाम का ही प्राणी है जो सब कुछ अकेले ही खाना चाहता है।  पेड़ , पौधे , जानवर , अनाज , हर प्रकार के कीट पतंगों से लगायत नदी , पर्वत , मिटटी और पत्थर तक को लील रहा है।  सृष्टि को क्या पता था की जिस इंसान को वह रच रही है वही इंसान उसके विनाश का कारण बन जाएगा।  



 इतिहास गवाह है की दुनिया की सारी  सभ्यताओ को नदियों ने ही पाला है।  मनुष्य को धरती पर चाहे जहां भी जगह मिली , उसको पाला नदियों ने ही।  नदियों की म्हणत से ही उसे सभ्यताओ के विकास का मौक़ा मिला।  नदियों ने ही उसे जीना सिखाया।  नदियों ने ही उसे खेती करना सिखाया।  नदियों ने ही उसे शहर बसाना सिखाया।  सिंधु नदी से लेकर  दजला फरात , मिसिसिपी , मिस्सुरी  और नील नदी तक की सभ्यताओ का इतिहास सामने है।  कांगो की घाटी का इतिहास हम जानते है।  ऐसे में प्रश्न यह उठता है की आखिर नदी मनुष्यता के लिए घातक कैसे हो सकती है।  जाहिर है हमने ही कुछ ऐसा किया है जिससे नदिया कुपित हुई है।  हमने ही कुछ ऐसा किया है जिससे पर्वत नाराज़ हुए है।  हमने ही ऐसा कुछ किया है जिससे सागर क्रोधित हुए है।  आज सबसे बड़ी जरूरत यही है की मनुष्य खुद के गिरेबान में झांके और प्रकृति के साथ खुद के द्वारा किये गए अत्याचार का विवेचन करे।

शत्रु नहीं हो सकती प्रकृति 

 यदि हम अध्यात्मिक ग्रंथों का गहनता से अध्यन करें तो स्पष्ट  हो जाता है कि भौतिक प्रदूषण से ज़्यादा सामाजिक प्रदूषण प्राकृतिक आपदाओं के लिए ज़िम्मेदार हैं और इन दोनो प्रदूषणों के लिए ज़िम्मेदार हैं हम| ये तो हम जानते ही हैं क़ि प्राकृतिक आपदा लौकिक न होकर किसी पारलौकिक शक्ति द्वारा नियंत्रित होती है| 
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥{5/15}
गीता के  इस श्लोक के अनुसार, ईश्वर ने तो किसी प्रकार के हस्तक्षेप से पल्ला झाड़ लिया है| वे कहते हैं कि “मैं न तो किसी के पाप लेता हूँ न ही किसी के पुण्य| मैं किसी कर्म से लिप्त नहीं होता|” जो कुछ भी होता है मनुष्य के अपने कर्मों का परिणाम है| प्रश्न ये उठता है कि मानव आख़िर पृथ्वी पर ही क्यों है और अपने किन गुनाहों की सज़ा भोग रहा है? ईसाई धर्म के धर्मग्रंथ बाइबल के आरंभ में ही मनुष्य के अपराध एवं परिणामस्वरूप स्वर्ग जैसे अपने मूल स्थान से निष्कासित किए जाने की कथा आती है| बाइबल के अनुसार स्वर्ग पर अधिकार को लेकर भगवान और शैतान में युद्ध होता है, फलस्वरूप शैतान हार जाता है और उसे नर्क में धकेल दिया जाता है| परंतु स्वर्ग को खो देने की टीस उसके मन से नहीं जाती| उसके पास इतना भी सैन्य बल नहीं है कि वह भगवान को हरा कर फिर से स्वर्ग का राज्य प्राप्त कर सके, उसे स्वर्ग में जाने की उसे अनुमति नहीं होती वह किसी तरह से मानव को पृथ्वी पर भिजवाने की साजिश रचता है| वह एक योजना के तहत साँप का रूप धारण कर के स्वर्ग में जाकर, स्वर्ग में रहने वाले आदम और हौवा को बहला फुसला कर ज्ञान अथवा बुद्धि का फल चखने को तैयार कर लेता है जिसको चखने की किसी को भी अनुमति नहीं होती, भगवान, आदम और हौवा या यूँ कहें कि प्रथम पुरुष एवं स्त्री को सज़ा के रूप में पृथ्वी पर भेज देते हैं|शैतान की योजना धीरे धीरे मानव को अपने चंगुल में फँसा कर अपनी संख्या बढ़ने की है| यहाँ से मानव की दुख भरी कहानी की शुरुआत होती है| यूँ समझिए कि पृथ्वी एक कारागार की तरह है, एक सुधार घर, जहाँ मानव को सुधारने के लिए भेजा गया है| सभी प्राणियों को एक तरह से कैदे बा मुशक्त हुई है| जब तक सज़ा पूर्ण नहीं होती या सुधर नहीं जाते तब तक जेल में रहना होगा और चक्की भी पीसनी होगी| जो प्रत्येक प्राणी अपने जन्म से ही पीसने लगता है और बदले में उसे रोटी कपड़ा मिलता रहता है| हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राणी किस अपराध की सज़ा काट रहे हैं नहीं मालूम पर इतना तो तय है कि जब भी मनुष्य अपने बुद्धि बल पर भरोसा कर के अपने इर्द गिर्द अपनी अटकलों के जाल बुनता जाता है उतना ही वह मोहज़ाल में फँसता चला जाता है और यही बुद्धि ही उसके विनाश का कारण बनती है| परंतु गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि जब पृथ्वी का निर्माण किया गया था तभी ब्रह्मा जी ने वेदों आदि का भी सृजन किया था जिसमें मानव आदि जीवों के लिए कर्म करने की नियमावली बनाई गई थी| एक तरह का कोड आफ कंडक्ट बनाया गया था| मनुष्य को उसी नियमावली का अनुसरण करते हुए, केवल बुद्धि पर आश्रित न रह कर बुद्धि और विवेक दोनों का प्रयोग करते हुए कर्म करने थे और ऋषि मुनियों एवं अनेक महान आत्माओं को जेलर की भूमिका सौंपी गई थी ताकि मनुष्य के चाल चलन पर नज़र रखी जा सके और इसके आचार व्यवहार को दुरुस्त किया जा सके| मनुष्य अपनी ग़लतियों से तौबा कर ले और वापिस अपने मूल स्थान को प्राप्त कर सके|


ईश्वर, प्रकृति और मानव का आपस में क्या रिश्ता है| आओ कुछ एक अध्यात्मिक ग्रंथों पर आधारित तथ्यों एवं कथ्यो को समक्ष रख कर समझने का प्रयास करते हैं| गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि ईश्वर यानी कि, वे स्वयं, केवल एक ही हैं और चेतन हैं| प्रकृति उनकी शक्ति है जो कि जड़ है और जीव, ईश्वर और प्रकृति के संयोग से उत्पन्न हुआ है| क्योंकि ईश्वर स्वयं किसी कर्म से लिप्त नहीं होते इसलिए सभी कार्यकारिणी एवं न्यायपालिका शक्तियाँ प्रकृति के पास हैं| प्रकृति जहाँ अपना सर्वस्व न्योछावर कर जीवों का पोषण करती है वहीं जीवों को दंडित करने के अधिकार भी प्रकृति के ही पास हैं| सूर्य, जल, वायु, पृथ्वी, अन्य ग्रह एवं नक्षत्र आदि प्रकृति के ही घटक हैं| सूर्य, पृथ्वी, जल एवं वायु प्रत्यक्ष रूप से हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं| प्रतिदिन सूर्य करोड़ों गेलन पानी शुद्ध कर के वायु की सहायता से उच्त्तम स्थानों तक पहुँचवाता है और भंडारण करता है ताकि 365 दिन 24 सों घंटे जल आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके| वर्षा आदि में भी इन्हीं चारों घटकों का योगदान है, सभी जानते हैं| कहीं तापममानों के अंतर कहीं पृथ्वी की उँचाइयाँ और गहराइयाँ भी प्रकृति की कार्य प्रणाली के ही हिस्से हैं| सोना चाँदी हीरे जवाहरात से लेकर वस्त्र और खाद्यान प्रकृति जीवों को मुफ़्त प्रदान करती है| मनुष्य को देना होता है तो केवल अपना श्रम| पृथ्वी यदि एक के सौ न करे तो किसी मानव के बूते की बात नहीं की जीवों को एक वक्त का खाना भी मुहैया करा सके| इसी प्रकार शुक्र, मंगल, बुध, गुरु, शनि आदि ग्रह भी अपनी अपनी भूमिका निष्ठापूर्वक निभाते रहते हैं |
एक ओर तो प्रकृति माता के वात्सल्य का सा व्यवहार कर के हमें परोपकारी होने का संदेश देती है कि जैसे, “तरूवर फल नहीं खात हैं, सरवर पियत न पानी” अर्थात प्रकृति अपने लिए कुछ नहीं रखती| मानव को भी वैसा ही व्यवहार करना चाहिए| वहीं कभी कभी अपना रौद्र रूप दिखला कर दंड के भय से सीधी राह पर आ जाने की भी चेतावनी देती रहती हैं| पृथ्वी, जल अग्नि, वायु सभी अपने अपने तरीके से श्रष्टि का विनाश करने में सक्षम हैं| गीता में भी भगवान श्री कृष्ण ने मानव की भलाई के लिए सदैव निष्काम एवं शास्त्र सम्मत कर्म करने पर बल दिया है| अर्जुन के एक प्रश्न के उत्तर में वे बतलाते हैं कि किए गये कर्म का लेश मात्र भी व्यर्थ नहीं जाता| प्राणी चाहे या ना चाहे, अच्छे कर्म का अच्छा व बुरे कर्म का बुरा फल मिलता ही मिलता है| कर्म एक तरह से बैंक के सावधि जमा (फिक्स्ड डिपोजिट) की तरह हैं| परिपक्व (मेच्योर) होने पर ही आपका संचित धन आपको मिल पाएगा | कभी व्यक्ति बुरे दौर से गुजर रहा होता है अर्थात उन दिनों उसकी नाम (डेबिट) वाले डिपोजिट मेच्योर हुए होते हैं और वह पीर फाकीरों के पास उपाय खोजने को जाता है और उनके बताए मार्ग पर चलता भी है, सौभाग्य वश उसका बुरा वक्त टल भी जाता है| परंतु ऐसा उन उपायों से नहीं होता बल्कि संयोग से ठीक उसी वक्त उस व्यक्ति की कोई पुरानी क्रेडिट वाली एफ.डी. मेच्योर हुई होती है| पर उसका विश्वास उसी जगह स्थिर हो जाता है| उपाय के रूप में जो अच्छा कर्म उसने अभी शुरू किया था उसे फलीभूत होने में तो वक्त लगेगा| क्योंकि कई बार लाख उपाय कर लो मनोकामना पूर्ण नहीं होती क्योंकि तब एक भी जमा (क्रेडिट) वाली एफ.डी. मेच्योर नहीं हुई होती| कोई भी बीज फलीभूत होने में कम से कम 90 दिन का समय तो लेता ही है| इसी तरह से कर्म ही शाप अथवा वरदान के रूप में जमा होते हैं जिनका फल वक्त आने पर मिलता ही मिलता है| वरदान भाग्य बन कर सामने आते रहते है और शाप मुसीबतें बन कर| जब जब हम असहाय, निरीह, मज़लूमों पर अत्याचार करते है तो हमारी डेबिट वाली एफ. डी. तैयार हो जाती है| उस समय तो वे असहाय प्रत्यक्ष रूप से हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते परंतु अपनी आहों और बददुवाओं से प्रकृति के न्यायालय में अपनी अर्जी दर्ज करवा जाते हैं| जब हम दुष्कर्म कर के निर्दोष आत्माओं को पेड़ों पर टाँग देते हैं या किसी को जान से मार देने का भय दिखला कर उसके जर जोरू ज़मीन पर हमला करते हैं और उनके घरौंदों को छीन लेते हैं तो क्या वे हमें यूँ ही माफ़ कर देते होंगे? शायद नहीं, कबीर जी ने कहा है:
दुर्बल को न सताइये जाकि मोटी हाय|
बिना जीभ की हाय से लोह भस्म हुई जाय||
मरी हुई बकरी की खाल से बनी धौकनी की जीभ भी नहीं होती परंतु ये लोहे को भस्म कर देने का सामर्थ रखती है| परंतु प्रश्न ये उठता है कि कुछ लोगों के गुनाहों की सज़ा समस्त समाज को क्यों? ऐसा नहीं है, व्यक्तिगत गुनाह की सज़ा व्यक्तिगत तौर पर तो दी ही जाती है परंतु जिस दुष्कर्म के लिए पूरा समाज ज़िम्मेदार हो तो सज़ा भी प्रकृति द्वारा सामूहिक तौर पर ही दी जाती है| महाभारत में अर्जुन तो निमित मात्र है भगवान ने तो ये संदेश देने का प्रयत्न किया है कि जब जब आपके आस पास जुल्मों की अति हो रही हो तो प्रत्येक नागरिक को अर्जुन बन जाना चाहिए| दुष्कर्मी, दुराचारी अपनो में से ही हैं, ये देख कर समाज को अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हो जाना चाहिए|जैसे आपदा के समय एक हो कर पीड़ितों का सहयोग करते हैं वैसे विपदा के समय भी पीड़ितों का सहयोग एवं असामाजिक तत्वों का विरोध करने के लिए एक जुट हो जाना चाहिए| वरना प्रकृति संपूर्ण समाज को दोषी मानते हुए सामूहिक दंड देती है शायद यही विधान है| पंचतंत्र में एक कथा आती है कि एक बार सात व्यक्ति किसी जंगल से हो कर गुजर रहे थे| तभी घटा घिर आई और ज़ोर ज़ोर से बिजली कड़कने लगी| तड़ित की एक लहर आती और घनघनाती हुई उन सातों के उपर से निकल जाती| बिजली से बचने के लिए उन्होने एक बरगद के पेड़ के नीचे पनाह ले ली| बिजली अब भी बार बार उनके उपर से हो कर गुजरने लगी, मानो उन सब पर गिरना चाहती हो| एक बुजुर्ग ने सलाह दी कि हम में से किसी एक की मृत्यु आई है| ऐसा न हो कि उस एक की वजह से हम सातों ही मारे जाएँ, ऐसा करते हैं एक एक कर के खुले आसमान के नीचे जाते हैं| जिसकी मौत आई होगी बिजली उस पर गिर जाएगी और बाकी सब बच जाएँगे| सातों ने बुजुर्ग की बात मान ली| सब से पहले बुजुर्ग बाहर की ओर गये और सुरक्षित लौट आए इसी प्रकार एक एक कर के छ: लोग सुरक्षित लौट आए परंतु अंत में एक 12-13 साल का बच्चा रह गया| सभी चाह रहे थे की बच्चा बाहर जाए तो हम सब की जान बचे परंतु बच्चा बहुत डर गया और बाहर जाने को राज़ी न हुआ| अब उन छ: लोगों को लगा मानो वह कोई मानव बम हो उन सभी ने मिलकर बच्चे को उठा कर अपने से बहुत दूर फैंका, जब तक बच्चा लौट कर उन तक पहुँचता बिजली उन छ: जनों की जान ले चुकी थी| असल में वह अकेला उन छ: की जान बचाए हुए था| परंतु प्रकृति को जैसा करना होता है वैसी ही प्रस्थतियाँ भी उत्पन्न कर लेती है|
ये मानव स्वभाव है कि हम अपने अच्छे किए को तो याद रखते हैं और जमकर ढिंढोरा भी पीटते रहते हैं परंतु बुरे किए को या तो भूल जाते हैं या किसी को भनक भी नहीं लगने देते| जब बुरा वक्त आता है तो सोचते हैं कि हमारे साथ ही ऐसा क्यों हुआ हमने तो किसी को कोई दुख नहीं दिया| जब बुरा वक्त आए तो वो वो चेहरे याद कर लेने चाहिएं जो जो हम से दया, करुणा की अपेक्षा करते रहे परंतु तब हमने अहंकार वश उनकी प्रार्थना को नज़रअंदाज कर दिया था| ईश्वर तो यही चाहते हैं कि मनुष्य को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए ताकि कर्मों से निर्लिप्त रह सके और बंधन मुक्त हो वापिस अपने स्थान की ओर अग्रसर होने का प्रयास करें | किसी स्वार्थ को सामने रख कर किए गये अच्छे कर्म से भी बंधन होगा और उसका फल भोगने के लिए पृथ्वी ही एक मात्र जगह है| और पृथ्वी पर तो सुख और दुख दोनो हैं |
प्रकृति की अवहेलना कर के मनुष्य अपने ही विनाश की इबारत लिख रहा है| प्रकृति जड़ है क्योंकि उसके पास बुद्धि नहीं है वह केवल विधान का ही अनुसरण करती है| मनुष्य के पास बुद्धि है परंतु विधान का पालन नहीं करता, हम कर्म से ही नहीं मनसा वाचा भी अपराध करते हैं| प्रकृति ईश्वर के आधीन है वह ईश्वर के आदेश की अवहेलना कभी भी नहीं कर सकती और अपने कर्तव्य से भी कभी नहीं चूकती|

हमारी जिम्मेदारी

अब सवाल उठता है कि प्राकृतिक प्रकोप से बचने के लिए हम क्या कर सकते हैं। सबसे पहले तो हम आपदाओं के लिए सिर्फ प्रकृति को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। थोड़ा सा भूगोल को समझने की कोशिश करे तो साफ़ दीखता है कि भारत में बाढ़ जैसी आपदा दरअसल आपदा नहीं बल्कि जीवन की संस्कृति के रूप में स्थापित रही है।  उदाहरण के लिए इसे उत्तर प्रदेश के नदी तंत्र से समझा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में ख़ास कर पूर्वांचल के हिस्से में छोटी बड़ी कुल मिलाकर लगभग एक सौ नदिया बहती है।  इनमे गंगा , सरयू , राप्ती , महाव , बड़ी गंडक , छोटी गंडक , बूढी राप्ती , ककरा नदी , घाघी , झरही , घाघरा , रेवा , गोमती , तमसा , आदि ऐसी नदिया है जो हज़ारो साल से इस क्षेत्र को प्रभावित कर रही है। यहाँ की सभ्यता के विकास में भी इन नदियों का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है।  जिन क्षेत्रो से होकर ये बहती है उन क्षेत्रो की अपनी अलग संस्कृति और सभ्यता बन जाती है। कहा जाता है की यह दुनिया का सबसे घना नदी तंत्र है।

अब यहाँ समझने की बात यह है की प्रकृति ने तो यहाँ के लोगो के लिए इतना बड़ा उपहार दिया।  लेकिन लोगो ने प्रकृति की इस अकूत सम्पदा का क्या किया। अपने विकास की यात्रा में आदमी ने सबसे पहले नदियों को बांधना शुरू कर दिया। उनके मार्ग अवरुद्ध कर दिए।  उनकी नैसर्गिक यात्रा को रोका।  परिणाम हुआ की इन नदियों से मिला आशीर्वाद ही यहाँ के जान जीवन के लिए अभिशाप बन गया।  जो काम हज़ारो साल में नहीं हुआ वह पिछले 60- 70  वर्षो में विकास के नाम पर आदमी ने कर दिया।  परिणाम आज सभी भुगत रहे है। नदियों के बहाव वाले क्षेत्रो में अब भोगर्भ जल का भी संकट खड़ा होने लगा है।    


 
देश-दुनिया के वैज्ञानिकों को आशंका है कि अगले  10 या 20 सालों में हिमालयी क्षेत्र में एक भीषण भूकंप आयेगा. इससे हिमालय के अंदर की विशाल ऊर्जा के एक बार बाहर निकलने के बाद हिमालय फिर अगले  100-150 सालों के लिए शांत हो जायेगा. 

हाल के दशकों में आर्थिक विकास की रफ्तार बढ़ाने की कोशिशों के बीच जिस तरह से प्रकृति को भी अपने सांचे में ढालने की कोशिशें तेज हुई हैं, उसके नकारात्मक नतीजे अब सामने आने लगे हैं. बीत रहा साल 2015 ऐसी कई घटनाओं का गवाह बना, जिसमें प्रकृति के बढ़ते प्रकोप की आहट साफ पढ़ी जा सकती है. 
 
हिमालयी क्षेत्र सहित पूरे उत्तर भारत में धरती का कई बार डोलना, खेती के लिए मौसम और मॉनसून का लगातार अनिश्चित होता जाना, देश में कहीं भीषण बाढ़ तो कहीं भीषण सूखे की आशंका बताते हैं कि प्रकृति से छेड़छाड़ की बजाय हमें अपनी विकास नीतियों को इसके अनुरूप बनाने की जरूरत है. प्राकृतिक घटनाओं के मद्देनजर 2015 से उभरे सबक और संकेत पर नजर डाल रहा है आज का वर्षांत विशेष.
 प्राकृतिक घटनाओं के लिहाज से 2015 लोगों में समझ बढ़ाने में कुछ हद तक कामयाब रहा है. पेरिस में इसी माह आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मलेन से यह साबित होता है कि धीरे-धीरे इसके प्रति जागरूकता बढ़ रही है. तमिलनाडु में हालिया बारिश से हुई तबाही से लोगों ने सबक लिया है.
 खासकर जो लोग इससे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए हैं, उनमें इस समस्या के प्रति जागरूकता ज्यादा बढ़ी है. अधिकारियों और सत्तारूढ़ वर्ग में भी इसकी समझ बढ़ रही है, लेकिन इस जागरूकता के बीच नीहित स्वार्थों और बाहरी दबावों की वजह से इस संबंध में कोई स्पष्ट कार्यक्रम नहीं बन पा रहा है, ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं से बचा जा सके. इसमें मौजूद नीहित स्वार्थों में से ज्यादातर अर्थ (धन) से जुड़े हैं. लोग जान तो रहे हैं कि क्या होना चाहिए, लेकिन आर्थिक कारणों से लोगों को इसमें ज्यादा कुछ होता नजर नहीं आता. 
 
सबसे गर्म वर्ष     
 
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, 2015 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा है. इसका प्रमुख कारण अलनीनो और ग्लोबल वॉर्मिंग बताया गया है. अलनीनो स्पष्ट रूप से हमारे यहां होनेवाली बारिश से जुड़ा है. भारत में मॉनसून की बारिश मूल रूप से इसी पर टिकी होती है. ग्लोबल वॉर्मिंग का असर अलनीनो पर पड़ रहा है और इससे हमारे देश में मॉनूसन की बारिश प्रभावित हो रही है। इस पूरे परिदृश्य का असर हमारी खेती पर पड़ता है, जिससे जीडीपी प्रभावित होती है. जब अभी यह स्थिति है, तो भविष्य में बारिश का चक्र और बिगड़ने से समाज खुद को किस प्रकार समायोजित कर पायेगा, यह बड़ी चुनौती होगी। 
 
अनियमित बारिश की  चुनौती     
 
देश में इस वर्ष बारिश का अनियमित चक्र देखा गया. मसलन मार्च में उत्तर-मध्य भारत में भारी बारिश, मॉनसून में अपेक्षाकृत कम बारिश, नवंबर-दिसंबर में दक्षिण में भारी बारिश आदि. ग्लोबल वॉर्मिंग के साथ इसके कारण को आसानी से जोड़ दिया जाता है, लेकिन यह सही नहीं है. हमें समझना होगा कि मॉनूसन कोई मशीन नहीं है, जो हर साल समय पर आयेगा और निर्धारित बारिश करके ही जायेगा।  हर साल इसमें घट-बढ़ हो सकती है और कृषि चक्र की तैयारी हमें उसी हिसाब से करनी चाहिए. प्राचीन काल में होनेवाली नैसर्गिक खेती में इन चीजों का ध्यान रखा जाता था. तब मौसम में बदलाव के हिसाब से खेती में भी बदलाव किया जाता था. लेकिन केमिकल खेती के दौर में इन चीजों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ऐसे में बारिश वक्त पर नहीं होने से खेती का पूरा चक्र बिगड़ने लगा है. मॉनसून सिस्टम में अभी और घट-बढ़ होगी. ग्लोबल वॉर्मिंग इस घट-बढ़ को और बढ़येगा. हमारे लिए बड़ी चुनौती होगी कि इस घट-बढ़ को कैसे समझें और उसके मुताबिक खेती के तरीके में किस तरह से बदलाव लायें।  
 
खेती सिस्टम बदलना होगा    
 
'क्लाइमेट चेंज' से भारत के कई इलाकों में भविष्य में सूखे की आशंका जतायी जा रही है. भारत में सूखे का पिछले 100-200 सालों का रिकॉर्ड देखने से पता चलता है कि करीब-करीब सभी दशक में सूखा पड़ा है. प्राचीन खेती के नैसर्गिक तरीकों में इसे सामान्य मान कर चला जाता था और उस हिसाब से तैयारी रहती थी. लेकिन 18वीं और 19वीं शताब्दी में परिदृश्य बदला। अकाल के दौरान भरपूर तादाद में खाद्यान्न होने के बावजूद ब्रिटिश सरकार द्वारा अनाज न बांटने के कारण त्रासदी बढ़ी। इस मायने में हमने अब तक कोई खास उपलब्धि नहीं हासिल की है। गोदामों में रखे अनाज का इस्तेमाल सरकार निर्यात के लिए करना चाहती है, न कि भूखों का पेट भरने के लिए। 
 
भयावह भूकंप के संकेत    
 
हिमालयी क्षेत्र में इस वर्ष आये भयावह भूकंप किसी बड़ी आपदा के संकेत प्रतीत हो रहे हैं. वैज्ञानिक रूप से यह माना जाता है कि हिमालय में भीतरी प्लेटों के आपस में टकराने से लगातार पैदा होनेवाली ऊर्जा हिमालयी क्षेत्र में प्रत्येक 100-150 साल में व्यापक रूप से बाहर निकलती है. पिछले 30-40 सालों में हिमालय क्षेत्र में आये तीन या चार बड़े भूकंप रिक्टर स्केल पर सात-आठ के आसपास रहे हैं. इसका मतलब है कि अभी छोटे स्तर पर ही यह ऊर्जा बाहर निकल रही है। चूंकि इन भूकंपों का स्तर नौ तक नहीं पहुंचा है, इसलिए यह आशंका जतायी जा रही है कि पूरी ऊर्जा अभी नहीं निकली है. देश-दुनिया के वैज्ञानिकों को आशंका है कि अगले 10 या 20 सालों में वह ऊर्जा एकसाथ बाहर निकलेगी और हो सकता है कि एक भीषण भूकंप आयेगा. इस विशाल ऊर्जा के एक बार बाहर निकलने के बाद हिमालय अगले 100-150 सालों के लिए शांत हो जायेगा। 




प्रकृति का प्रकोप 
 
देश में कहीं सूखा तो कहीं बारिश से तबाही 
 
 देश के अनेक जिले सूखे की चपेट में आने लगे है। अनेक इलाकों में  भारी बारिश ने खेती समेत उद्योग जगत को नुकसान पहुंचायाहै। पिछले  साल मार्च  महीने में हुई बेमौसमी बारिश ने उत्तर और मध्य भारत के कई इलाकों में रबी  की फसल को तबाह कर दिया था। विशेषज्ञों ने इसे वैश्विक स्तर पर होने वाले  मौसम परिवर्तन का नतीजा बताया. बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश समेत  देश के कई अन्य इलाकों में मॉनसून सीजन के दौरान औसत से कम बारिश हुई,  जिससे खरीफ की फसल प्रभावित हुई. वहीं दूसरी ओर राजस्थान और गुजरात समेत  पंजाब के अनेक इलाकों में भारी बारिश से जान-माल का नुकसान हुआ.  
 
चेन्नई में बरपा बारिश का कहर 
 
पिछले वर्ष नवंबर  और दिसंबर में लगातार कई दिनों तक मूसलाधार बारिश होने के कारण भयावह बाढ़ ने चेन्नई समेत तमिलनाडु के कई इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया. मौसम  विभाग के मुताबिक, इस वर्ष नवंबर में चेन्नई में 1197 मिमी बारिश हुई, जबकि  इससे पहले वर्ष 1918 में सर्वाधिक 1088 मिमी बारिश हुई थी. इस आपदा की  विकरालता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि समूचा चेन्नई एयरपोर्ट  जलमग्न हो गया था. चेन्नई में आयी इस आपदा में करीब 350 लोग मारे गये। ‘सेंटर फाॅर साइंस एंड एनवायर्नमेंट’ का कहना है कि आधुनिक विकास के क्रम में प्राकृतिक जलाशयों और जल निकाली वाले नालों का रास्ता रोक देने से यह  स्थिति पैदा हुई है. सीएसइ की मुखिया सुनीता नारायण का कहना है कि दिल्ली,  कोलकाता, मुंबई समेत देश के अन्य बड़े नगरों में निर्माण कार्य के समय  बारिश के पानी के बहाव और प्राकृतिक जलाशयों पर समुचित ध्यान नहीं दिया  जाता है. इस साल हुई इस घटना से शहरीकरण के लिए एक बड़ा सबक मिला है.
 
हिमालयी क्षेत्र में आ रहे भूकंप से तबाही के संकेत!
 
बीते वर्ष अप्रैल माह में नेपाल में आये 7.9 की तीव्रता वाले भूकंप से समूचा उत्तर भारत हिल गया. खास तौर पर नेपाल से सटे राज्यों- बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश- में काफी तेज झटका महसूस किया गया. हालांकि, भारत में इसने कम तबाही मचायी और मृतकों की संख्या दहाई अंकों तक सीमित रही, लेकिन नेपाल में इससे करीब 10,000 लोग मारे गये. भारत में सबसे ज्यादा लोगों की मौत बिहार में हुई. इस भूकंप का केंद्र काठमांडू के निकट था और उस इलाके में ज्यादा जान-माल का नुकसान हुआ. इस बड़े झटके के बाद अगले एक माह तक भूकंप के कई झटके आये, जिनमें से ज्यादातर का असर राजधानी दिल्ली समेत अनेक उत्तर भारतीय राज्यों तक देखा गया. पर्यावरण वैज्ञानिक  इसे भविष्य की बड़ी बड़ी तबाही के संकेत मान रहे हैं. उधर, ‘नासा’ के वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालय की प्लेट के अपने स्थान पर प्रत्येक वर्ष कुछ उपर उठने के कारण ये भूकंप आ रहे हैं. इसके अलावा, उसी  माह झारखंड में आये भूकंप से भी प्रकृति विज्ञानी चिंतित हैं. हालांकि, इस भूकंप से कोई अनहोनी घटना नहीं घटी, लेकिन कहा जा रहा है कि भूकंप का केंद्र देवघर में होना ऐतिहासिक घटना है. इस वर्ष अक्तूबर में भी उत्तराखंड समेत दिल्ली में भूकंप के कई झटके महसूस किये गये. 
 
भारत से जुड़ा है प्रमुख कारण
 
नेपाल में आये भूकंप का कारण भारत के टेक्टोनिक प्लेट से भी जुड़ा हुआ है, जो प्रत्येक वर्ष पांच सेंटीमीटर की दर से उत्तर यानी मध्य एशिया की ओर खिसक रहा है.  इसका असर हिमालय पर्वत शृंखला तक हो रहा है. वर्ष 1905 में कांगड़ा इलाके  में 7.5 तीव्रता, 1934 में बिहार में आये 8.2 तीव्रतावाले और कश्मीर में  2005 में आये 7.6 तीव्रतावाले भूकंप कारण भी यही था. अमेरिकी जियोलॉजिकल  सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में प्रत्येक वर्ष 13 लाख से ज्यादा  बार भूकंप आते हैं, लेकिन उनमें से लगभग 15 ही महज ऐसे होते हैं, जिनकी  तीव्रता 7.0 से ज्यादा होती है.  
 
राजधानी की हवा जहरीली
 
दिल्ली की हवा दिन-ब-दिन प्रदूषित होती जा रही है. इस साल एक अध्ययन में यह साबित हुआ कि यहां सांस लेना दिनभर में 30 सिगरेट पीने के समान है. धुंध में  लिपटी यहां की हवा इस साल और भी जहरीली हो चुकी है. दिल्ली हाइकोर्ट ने इस  पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि प्रदूषण का स्तर इमरजेंसी लेवल तक जा पहुंचा  है. दिल्ली के वातावरण में नाइट्रोजन आक्साइड, ओजोन, बेंजीन, कार्बन  मोनोआॅक्साइड और सल्फर डाइआॅसाइड के जहरीले काॅकटेल के अलावा आसानी से  फेफडों में पहुंचने वाले पार्टिकुलेट मैटर का घना बादल अकसर छाया रहता है. प्रदूषण को रोकने के लिए इस वर्ष हाइकोर्ट में अनेक मामलों पर सुनवाई की गयी. हाल ही में हाइकोर्ट के एक जज ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘लग रहा है कि दिल्ली गैस चेंबर में तब्दील हो चुकी है.’ हालांकि, इस समस्या से  निबटने के लिए समग्रता से योजना नहीं बन रही. जहां एक ओर डीजल से चलनेवाली  गाडियों पर रोक लगाने की कवायद की जा रही है, 
 
पेरिस में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन 
 
फ्रांस की राजधानी पेरिस में आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में धरती पर होने वाले कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की प्रतिबद्धता जतायी गयी. इस शिखर सम्मेलन में 195 देशों के राष्ट्रप्रमुखों, राष्ट्राध्यक्षों, प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया और इस संबंध में किये गये करार पर हस्ताक्षर किया. पर्यावरण शिखर सम्मेलन का लक्ष्य ग्लोबल वॉर्मिंग में वृद्धि की दर को औद्योगिक क्रांति के पहले के स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस तक रोकना है. इस सीमा से आगे बढ़ने पर बाढ़, तूफान और बढ़ते समुद्री जल स्तर का सामना कर रही धरती पर जीवन के लिए मुश्किलें पैदा होने लगेंगी. क्योटो प्रोटोकॉल में भरी गयी हामी के मुताबिक वैश्विक तापमान पर पेरिस सम्मेलन में देशों के बीच कानूनी समझौते की कोशिश है.
 
हाल के दशकों का सबसे गर्म साल रहा 2015
 
दुनियाभर के देशों ने भीषण गर्मी का प्रकोप बढ़ रहा है. भारत भी इससे अछूता नहीं है. इस वर्ष देश के महज दो राज्यों में गरमी से 2,187 लोगों की मौत हुई. देशभर में यह आंकड़ा जून माह के दौरान ही 2,300 को पार कर गया था. सबसे ज्यादा मौतें आंध्र प्रदेश (1,636) और तेलंगाना (541) में हुईं. वैज्ञानिकों ने कहा है कि अल नीनो का असर बढ़ने से यह वर्ष अब तक का सबसे गर्म वर्ष साबित हो सकता है. कई अध्ययनों में इस बात की तसदीक की गयी है। वर्ष 1906 से 2005 के बीच के रिकॉर्ड के आधार पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की वर्ष 2014 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक तापमान में 0.74 डिग्री वृद्धि हुई. 20वीं सदी में तापमान 0.9 डिग्री तक बढ़ गया है. आइआइटी बंबई के एक शोध दल ने भी आइपीसीसी की रिपोर्ट की पुष्टि की है. ‘रिजनल एनवायर्नमेंटल चेंज’ पत्रिका में छपी इस शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि तापमान इसी तरह बढ़ता रहा, तो मानव जीवन के साथ-साथ पारिस्थितिकी तंत्र का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जायेगा। 
 पहले से ही पेयजल, बिजली और प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव झेल रहे भारत जैसे देश के लिए यह किसी अभिशाप से कम नहीं होगा. अमेरिकी मौसम विभाग ने भी कहा है कि ‘अल नीनो’ का प्रभाव बढ़ रहा है। 
शोध नहीं सभ्यता का निर्माण जरूरी 
भारत में प्राकृतिक आपदा के प्रबंधन को प्रयोशालाओ के भीतर नहीं समझा जा सकता।  इसको केवल सरकारी नीति बना कर भी नियंत्रित करना संभव नहीं है।  दरअसल जब तक इस प्रबंधन को जीवन संस्कृति का हिस्सा नहीं बनाया जाता तब तक प्रकृति के गुस्से को सम्हालना बहुत ही कठिन कार्य है।  इसे हर प्राकृतिक संभाग के स्टार पर समझ कर कदम उठाने होंगे।  यह जान सहभागिता और जान पक्षधरता से ही संभव हो सकेगा।  वैसे भी बाढ़ को छोड़ दे तो भूकंप , सुनामी , भूस्खलन , आदि आपदाये रोज नहीं आती।  बाढ़ के भी नियम है।  बाढ़ के कारणों में हिमालयी क्षेत्र से आने वाले पानी के उपयोग और प्रबंधन पर ही ध्यान देना होगा।  
हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। हमें स्वीकार करना होगा कि आपदाओं के पीछे कहीं न कहीं हमारी गलती भी है। दूसरा मुद्दा है: आपदाओं से होने वाले नुकसान को कैसे कम किया जाए। हम अपने नेताओं पर इस बात के लिए दबाव बना सकते हैं कि वे आपदा प्रबंधन के इंतजामों पर खास ध्यान दें। हम उद्योग जगत पर भी दबाव बना सकते हैं कि वे औद्योगिकरण के नाम पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाना बंद करें। हम सरकार पर दबाव बनाएं कि वे कड़ाई से पर्यावरण संरक्षण नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करें। हम नेता चुनते हैं और हमें पूरा अधिकार है कि हम उनसे सवाल करें। सबसे बड़ी जिम्मेदारी यह है कि हम सजग रहें और आपदाओं से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए सरकार की जिम्मेदारी तय करें। हम चाहें तो आने वाले खतरों से खुद को बचा सकते हैं।
भारत में आपदा प्रबंधन : सरकारी प्रयास 

 द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपनी तीसरी रिपोर्ट में आपदा के लिए डिसास्टर के स्थान पर क्राइसिस शब्द प्रयुक्त किया है। यह वह प्रतिकूल स्थिति है जो मानवीय, भौतिक, पर्यावरणीय एवं सामाजिक कार्यकरण को व्यापक तौर पर प्रभावित करती है। आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 में- आपदा से तात्पर्य किसी क्षेत्र में हुएउस विध्वंस, अनिष्ट, विपत्ति या बेहद गंभीर घटना से है जो प्राकृतिक या मानवजनित कारणों से या दुर्घटनावश या लापरवाही से घटित होती है और जिसमें बहुत बड़ी मात्रा में मानव जीवन की हानि होती है या मानव पीड़ित होता है या संपत्ति को हानि पहुंचती है या पर्यावरण का भारी क्षरण होता है। यह घटना प्रायः प्रभावित क्षेत्र के समुदाय की सामना करने की क्षमता से अधिक भयावह होती है।

उच्चाधिकार प्राप्त समिति द्वारा पहचानी गई प्रमुख आपदाएं हैं-

जल एवं जलवायु से जुड़ी आपदाएं, चक्रवात, बवण्डर एवं तूफान, ओलावृष्टि, बादल फटना, लू व शीतलहर, हिमस्खलन, सूखा, समुद्ररक्षण, मेघगर्जन व बिजली का कड़कना;
भूमि संबंधी आपदाएं, भूस्खलन एवं कीचड़ का बहाव, भूकंप, बांध का टूटना, खदान में आग;
दुर्घटना संबंधी आपदाएं, जंगलों में आग लगना, शहरों में आग लगना, खदानों में पानी भरना, तेल का फैलाव, प्रमुख इमारतों का ढहना, एक साथ कई बम विस्फोट, बिजली से आग लगना, हवाई, सड़क एवं रेल दुर्घटनाएं,
जैविक आपदाएं, महामारियां, कीटों का हमला, पशुओं की महामारियां, जहरीला भोजन;
रासायनिक, औद्योगिक एवं परमाणु संबंधी आपदाएं, रासायनिक गैस का रिसाव, परमाणु बम गिरना।

इनके अतिरिक्त नागरिक संघर्ष, सांप्रदायिक एवं जातीय हिंसा, आदि भी आज प्रमुख आपदाएं हैं।

आधुनिक युग का भीषणतम तूफान वर्ष 1201 में मिस्र एवं सीरिया में आया था जिसमें 10 लाख लोग मारे गए थे। इसके पश्चात् सन् 1556 में चीन में आए भूकंप में 8.50 लाख व्यक्ति काल-कवलित हो गए। भारत का ज्ञात, भीषणतम भूकंप सन् 1737 में कलकत्ता में आया था जिसमें 3 लाख हताहत हुए। रूस, चीन, सीरिया, मिस्र, ईरान, जापान, जावा, इटली, मोरक्को, तुर्की, मेक्सिको, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, यूनान, इण्डोनेशिया तथा कोलम्बिया इत्यादि भूकंप के प्रति सर्वाधिक नाजुक क्षेत्र हैं। हिमालय क्षेत्र बेहद संवेदनशील है क्योंकि इस क्षेत्र की पृथ्वी की भीतरी चट्टानें निरंतर उत्तर की ओर खिसक रही हैं। विश्वभर में 10 ऐसे खतरनाक ज्वालामुखी हैं जो बड़े क्षेत्र को तबाह कर सकते हैं।

संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय-आपदा शमन रणनीति (यूएनआईएसडीआर) के अनुसार प्राकृतिक आपदाओं के मामले में चीन के बाद दूसरा स्थान भारत का है। भारत में आपदाओं की रूपरेखा मुख्यतः भू-जलवायु स्थितियों और स्थालाकृतियों की विशेषताओं से निर्धारित होती है और उनमें जो अंतनिर्हित कमजोरियां होती हैं उन्हीं के फलस्वरूप विभिन्न तीव्रता की आपदाएं वार्षिक रूप से घटित होती रहती हैं। आवृति, प्रभाव और अनिश्चितताओं के लिहाज से जलवायु-प्रेरित आपदाओं का स्थान सबसे ऊपर है।

भारत के भू-भाग का लगभग 59 प्रतिशत भूकंप की संभावना वाला क्षेत्र है। हिमालय और उसके आसपास के क्षेत्र, पूर्वोत्तर, गुजरात के कुछ क्षेत्र और अंडमान निकोबार द्वीप समूह भूकंपीय दृष्टि से सबसे सक्रिय क्षेत्र हैं।

भारत में राज्यों में आपदाओं के जोखिम की विस्तृत रूपरेखा को दर्शाने वाला केवल एक ही दस्तावेज है वल्नरेविलिटी एटलस जिसे भवन निर्माण सामग्री एवं प्रौद्योगिकी संवर्द्धन केंद्र में तैयार किया है। बीएमटीपीसी द्वारा 1997 में प्रकाशित इस एटलस का नया संस्करण 2006 में तैयार किया गया था और उसमें विभिन्न आपदाओं से संबंधित ताजा जानकारियां दी गई थीं।

गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और बिहार मानव जीवन क्षति, पशुधन, मकानों और फसलों की क्षति के मामले में शीर्ष 10 राज्यों में आते हैं। आध्र प्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में आपदाओं से सर्वाधिक क्षति मवेशियों की होती है। मानव जीवन की सबसे अधिक क्षति उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में होती है। मकानों और फसलों की क्षति भी इन्हीं चार राज्यों में सर्वाधिक होती है। यद्यपि जोखिम के कारणों का सही-सही पता तो उनके और विश्लेषण से ही चल सकेगा, लेकिन यह कहा जा सकता है कि उपर्युक्त राज्य उच्च जोखिम वाली श्रेणी के अंतर्गत आते हैं और उन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

आपदाएं भारत में व्यापक नुकसान और विघटन का कारण रही हैं जहाँ सुखा, बाढ़ समुद्री तूफान और भूकंप जैसी प्राकृतिक विपदाएं तथा कभी-कभी भीपाल में गैस रिसने जैसी मानव निर्मित त्रासदियां बारम्बार कहर ढहाती हैं। कुछ आपदाएं जैसे 1984 की भोपाल गैस दुर्घटना, 1995 में सूरत में प्लेग का प्रकोप और 1998 में ड्राप्सी महामारी स्पष्ट रूप से मानवकृत आपदाएं कही जा सकती हैं। एशिया में 1993-1997 के दौरान कई तीव्र भूकंप आएजहां जान-माल के नुकसान का अनुपात अधिक था। सन् 1999 में ओडीशा में आया महाचक्रवात, सन् 2001 में गुजरात में आया भूकंप क्षति एवं विनाश की गंभीरता के संदर्भ में विगत् सदी के अंतिम दशक की सर्वाधिक विनाशकारी विपति थी। 26 दिसंबर, 2004 को भारत के तटीय क्षेत्रों में भूकंप आया जिससे सुनामी लहरें उत्पन्न हुई और जिनसे आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु राज्यों के तटवर्ती क्षेत्र तथा पुदुचेरी एवं अंडमान तथा निकोबार द्वीपसमूह संघ क्षेत्र प्रभावित हुए। इससे व्यापक जान-माल की क्षति हुई। उल्लेखनीय है कि सुनामी आपदा का अनुभव देश में पहली बार हुआ।

16 जून, 2013 को उत्तराखंड में बादल फटने से आई विध्वंसकारी बाढ़ एवं भू-स्खलन ने बड़ी मात्रा में जान-माल का नुकसान किया। इस विध्वंसकारी प्राकृतिक आपदा में हजारों लोग काल-कवालित हुए एवं लाखों बेघर हो गए। इस आपदा ने एक बार फिर हमारी आपदा से निपटने एवं उसके प्रबंधन पर प्रश्नचिंह खड़ा कर दिया है।

भारत में बड़े पैमाने पर और तीव्र शहरीकरण हो रहा है और यह शहरीकरण जोखिम को अभूतपूर्व स्तर तक बढ़ा रहा है। जान-माल को उस समय अधिक खतरा पैदा हो जाता है जब ख़राब निर्माण और रखरखाव वाले आधारभूत ढांचे के उच्च घनत्व वाले क्षेत्र में प्राकृतिक आपदा-पर्यावरण ह्रास, आग,बाढ़ एवं भूकंप आते हैं। भारत के पर्वतीय क्षेत्र हमारे देश का विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र का जहां विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं वाले कई प्रकार के जातीय समूह रहते हैं और सभी प्रमुख प्राकृतिक आपदाएं इसी क्षेत्र में आती हैं। जिससे लोगों का सामाजिक-आर्थिक जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है तथा लोगों की दुर्दशा होती है। प्राकृतिक आपदाएं, समुद्री तूफान एवं उनके साथ आने वाली चक्रवाती लहरें नियमित रूप से तटवर्ती इलाकों में आती हैं और विपत्ति लाती हैं, लेकिन इन विपदाओं से होने वाला नुकसान हाल में काफी व्यापक हुआ है, जिसका मुख्य कारण तटवर्ती इलाकों में आबादी का बढ़ता दबाव है। खतरनाक क्षेत्रों में बसने की इस प्रवृत्ति तथा आने वाले दशकों में अनुमानित जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र तल के बढ़ने से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इन क्षेत्रों में भविष्य में आपदाओं की संख्या में बढ़ोतरी होगी।


आपदा प्रबंधन में शामिल तत्व

आपदा प्रबंधन वह प्रक्रिया है जो आपदा के पूर्व की समस्त तैयारियों, चेतावनी, पहचान, प्रशासन, बचाव रहत, पुनर्वास, पुनर्निर्माण तथा आपदा से बचने के लिए अपनायी जाने वाली तत्पर अनुक्रियाशीलता इत्यादि के उपायों को इंगित करती है। आपदा प्रबंधन की खास विशेषताएं अग्रलिखित हैं-

आपदा प्रबंधन आपदा आने की चेतावनी से लेकर उसके पश्चात्, पुनर्वास, पुनर्निर्माण एवं भविष्य के लिए आपदा रोकथाम एवं बचाव इत्यादि कृत्यों तक विस्तारित है।
यह संपूर्ण लोक प्रशासन की एक ऐसी विशेषीकृत शाखा है जो प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों से उत्पन्न आपदाओं के नीति नियोजन, नियंत्रण, समन्वय, रहत, बचाव एवं पुनर्वास इत्यादि का अध्ययन करती है।
आपदा प्रबंधन एक जटिल तथा बहुआयामी प्रक्रिया है अर्थात् केंद्र, राज्य एवं स्थानीय शासन के साथ-साथ बहुत सारे विभाग, संस्थाएं एवं समुदाय इसमें अपना योगदान देते हैं।

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