इंसेफेलाइटिस की राजनीति और राजनीति में इंसेफेलाइटिस


इंसेफेलाइटिस की राजनीति और राजनीति में इंसेफेलाइटिस 

संजय तिवारी
बात १९९१ की है। उस वर्ष पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर मण्डल में नवकी बीमारी ने कोहराम मचा रखा था। डॉक्टरों को समझ में नहीं आ रहा था कि यह आपदा कहां से आ गई। इस बीमारी के बारे में उस समय किसी को कोई खास जानकारी नहीं थी। इससे पहले बिहार में काला जार नामक रोग अपना संक्रमण फैला चुका था और उस पर वहां के प्रसिद्ध चिकित्सक और बाद में भाजपा के नेता बन गये डॉ. सीपी ठाकुर ने खुद के प्रयास से काबू पा लिया था। लेकिन पूर्वांचल में फैली नवकी बीमारी किसी की समझ में नहीं आ रही थी। उसी समय गोरखपुर में कार्यरत एक संस्था गोरखपुर एनवायरनमेण्टल एक्शन ग्रुप ने इस बारे में कुछ काम करने का मन बनाया। संस्था के संचालक डा. शीराज अख्तर वजीह ने अपने एक सहयोगी पत्रकार संजय तिवारी के साथ बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के बाल रोग विशेषज्ञ डा. केपी कुशवाहा और डा. डीके श्रीवास्तव से मुलाकात की। इस मुलाकात में सबसे बड़ी समस्या इंसेफेलाइटिस जैसे रोग को लेकर किसी प्रकार की शोध सामग्री की अनुपलबधता सामने आई। डा. कुशवाहा का कहना था कि जिस नवकी बीमारी से बच्चों की लगातार मौत हो रही है। वह वस्तुत: जापानी इंसेफेलाइटिस है लेकिन इसके बारे में शोध और बचाव का कोई चिकित्सकीय विकल्प अभी तक सामने नहीं आया है। डा. कुशवाहा ने ही बताया था कि इसकी पहली रिपोर्ट १९७७-७८ में इसी बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में की गई थी। लेकिन इस पर सरकार अथवा चिकित्सा शिक्षा विभाग ने कोई ध्यान नहीं दिया। उसी समय डा. कुशवाहा ने यह प्रस्ताव रखा कि इस भयानक बीमारी को लेकर उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास करके कुछ शोध कराये हैं। इस बैठक में एक प्रस्ताव यह भी आया कि इस बीमारी को जागरुकता फैला कर रोका जा सकता है। 

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इसके बाद डा. शीराज ने उत्तर प्रदेश वालंट्री हेल्थ एसोसिएशन के वाराणसी केंद्र से संपर्क किया तो केंद्र के तत्कालीन प्रमुख प्रकाश सोलोमन ने इस गंभीर मुद्दे पर हर प्रकार की मदद का भरोसा दिलाया। उसके बाद गोरखपुर एनवायरनमेण्टल एक्शन ग्रुप यानी जीईएजी ने डा. कुशवाहा से मिलकर यह तय किया कि सबसे पहले इस नवकी बीमारी यानी जापानी इंसेफेलाइटिस के बारे में जागरूकता फैलाने का प्रयास शुरू किया जाए। इसके लिए सबसे आवश्यक था कि जन भाषा में इस बीमारी के बारे में साहित्य उपलब्ध हो। यह कार्य करने के लिए खुद जीईएजी ने बीणा उठाया और डा. कुशवाहा से मिले सभी साहित्य का हिंदी में अनुवाद कराया। जीईएजी ने ही इस बीमारी के वाहक और संक्रामक यानी मच्छर और सूअर से होते हुए मनुष्य तक के संक्रमण को रेखांकित किया और इसके पोस्टर तैयार कराये गए। 
इसी बीच यह तय किया गया कि पूर्वांचल का कोई सांसद यदि इतने गंभीर रोग के बारे में लोकसभा में सवाल उठा सके तो इसकी तरफ सरकार का ध्यान जायेगा और बच्चों की मौत को रोका जा सकेगा। इस बारे में गोरखपुर के तत्कालीन सांसद महंत अवेद्यानाथ से जब संपर्क किया गया तो उन्होंने इस बारे में कोई पहल करने से मना कर दिया। उनका कहना था कि यह बहुत लोकल मामला है और बीमारी के बारे में ठीक से कुछ पता नहीं है। कुल मिलाकर अपने सांसद से सवाल खड़ा कराने में प्रयास विफल हो गया। इसी क्रम में गोरखपुर के अलावा पूर्वांचल के अन्य सांसदों से भी संपर्क किया गया लेकिन किसी को यह मामला न तो गंभीर लगा और न ही इस योग्य कि वे लोकसभा में इस पर सवाल उठाते। इसी दौरान दिल्ली में एक कार्यक्रम में यूपीवीएचए, जीईएजी के संचालकों और कुछ सांसदों की मुलाकात हुई। इस मुलाकात में जब पूर्वांचल में फैल रहे इस रोग के बारे में बात की गई तो सिक्किम के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरबहादुर भंडारी की धर्मपत्नी श्रीमती दिलकुमारी भंडारी ने इसे बहुत गंभीरता से लिया। श्रीमती दिलकुमारी भंडारी उस समय दसवीं लोकसभा की सांसद थीं। यह कितनी विचित्र बात है कि पूर्वांचल की जिस समस्या को पूर्वांचल का कोई सांसद गंभीरता से नहीं ले रहा था उस समस्या को सिक्किम की सांसद श्रीमती दिलकुमारी भंडारी ने बहुत गंभीरता से उठाया। उन्होंने जीईएजी के पूरे प्रपत्र को लोकसभा के पटल पर रखा और पहली बार यह मुद्दा केंद्र सरकार के संज्ञान में आया। 
इसके बाद तो इस पूरे मामले में राजनीति, बयानबाजी और आरोप प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया। इंसेफेलाइटिस की पूरी लड़ाई उस समय यूपी वीएचए ही लड़ रही थी। इसी बीच जब कल्याण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में सरकार बनी तो उसमें सूर्यप्रताप शाही स्वास्थ्यमंत्री बनाए गए। श्री शाही चूंकि पूर्वांचल के थे इसलिए उनसे लोगों को यह उम्मीद जगी कि वह इस मामले में कुछ करेंगे। उस समय तक टीकाकरण का विकल्प सामने आ चुका था और कसौली स्थित एक कंपनी से उत्तर प्रदेश सरकार ने टीकों की आपूर्ति के लिए अनुबंध भी कर लिया था। श्री शाही का दुर्भाग्य यह था कि जिस साल वह स्वास्थ्य मंत्री बने उसी साल बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में इंसेफेलाइटिस से बच्चों की मौतों का सिलसिला तेज हो गया। वैसे भी यह बीमारी पहले एक साल के अंतराल पर अपने भीषण रूप में आती थी। उस समय जब बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में बच्चों के मरने का क्रम बहुत तेज हुआ और बिस्तर से लेकर दवाईयों तक के लिए हाहाकार मच गया तब केंद्र और प्रदेश दोनों जगह की सरकारों को राजनीतिक चिंता हुर्ई। केंद्रीय स्वास्थ्यमंत्री माखनलाल फोतेदार से लेकर उत्तर प्रदेश के अनेक मंत्रियों तक ने बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में डेरा जमाया और वादे पर वादे किए गए। इसी बीच टीकाकरण में सरकार के झूठ को लेकर यूपीवीएचए के प्रकाश सोलोमन और सूर्यप्रताप शाही के बीच काफी विवाद हुआ। 
अब यह सिलसिला बन गया। बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज के लिए, पूर्वांचल के नेताओं के लिए और चिकित्सकों, दवा कंपनियों और डीलरों का अद्भुत खेल शुरू हो गया। गोरखपुर में केंद्र सरकार की पहल पर एक वायरोलोजी लैब गोरखपुर महानगर के सूरजकुण्ड मोहल्ले में स्थापित किया गया और कुछ ही समय बाद उसे बन्द भी कर दिया गया। समय के साथ राजनीति पर राजनीति होती रही। न तो इंसेफेलाइटिस पर काबू पाया जा सका और न ही बच्चों की मौतों का सिलसिला थमा। जिस बीमारी को लेकर पूर्वांचल का कोई सांसद वर्ष १९९१ तक लोकसभा में सवाल उठाने को तैयार नहीं था वही बीमारी गोरखपुर और पूर्वांचल में राजनीति करने वालों के लिए एक मुद्दा बन गई। जिन लोगों ने इस बीमारी को लेकर जागरू कता की पहल की थी वे बहुत पीछे छूट गए। इस बीमारी पर गोरखपुर से लेकर डबलूएचओ तक हंगामा खड़ा करने वाले डा. केपी कुशवाहा अब मेडिकल कॉलेज से रिटायर होकर उसी शहर में अपना नर्सिंग होम चलाते हैं।

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