जीवन का उत्सव

रंगपर्व 
जीवन का उत्सव
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 संजय तिवारी
 यहाँ मस्ती है।  उल्लास है।  नृत्य है।गीत हैं। संगीत है। रास हैं। राग हैं।  छंद हैं।  सौंदर्य है।रंग है। रिश्ते हैं। मधुरता है। चेतना है। आत्म है। विशवास है। यह केवल कोई त्यौहार नहीं है बल्कि जीवन का वास्तविक पर्व है। सृष्टि का संचारी पर्व।  यही दिखता है जीवन के उल्लास का पथ और यही बताता है परिवार।  समाज और रिश्तो की संवेदना की महत्ता। सच में अद्भुत पर्व है जिसमे कोई अनुष्ठान नहीं केवल उत्सव निहित है। यही फगुवा है। वास्तव में फागुन का नाम सुनते ही हमारी आंखों के सामने जो तस्वीर उभरती है, वह है- राग-रंग और मौज-मस्ती की। फागुन के महीने में ऋतुराज बसंत पूरे यौवन पर होते हैं और मन सभी वजर्नाओं को तोड़ने को आतुर रहता है। फागुन से जुड़ी शिव की एक रोचक कथा पुराणों में है। दैत्यराज तारकासुर अपनी तपस्या के बल पर ब्रह्माजी से शिव पुत्र के हाथों मृत्यु का वरदान पा, निर्भय होकर देवताओं पर अत्याचार कर रहा था। वह जानता था कि शिव सती के वियोग में योग समाधि में लीन हैं, इसलिए न तो वे विवाह करेंगे, न ही उनका कोई पुत्र होगा। लेकिन सभी देवताओं सहित ब्रह्मा और विष्णु के आग्रह को स्वीकार कर कामदेव ने शिव की समाधि को भंग करने का निश्चय किया। कामदेव अपने इस प्रयास में शिव के क्रोध के कारण भस्म हो गए।
शिव द्वारा कामदेव को भस्म करने की यह घटना फागुन मास में ही घटी थी। कामदेव के भस्म होने का समाचार जब रति ने सुना तो वे देवाधिदेव शिव की शरण में गईं। रति की प्रार्थना पर शिव ने कामदेव को अनंग रूप में सभी के चित्त में वास करने का वरदान दिया और कहा कि द्वापर में वे कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेंगे। इस वरदान के फल से कामदेव ‘काम’ रूप में सभी मनुष्यों के चित्त में वास करने लगे। ऋतुराज बसंत का आगमन भले ही माघ माह में हो, लेकिन इसका उच्चतम ज्वार फागुन में होता है। बसंत ऋतु के देव कामदेव हैं। फागुन के देवता एक ओर कृष्ण हैं, तो दूसरी ओर शिव। कामदेव राग-रंग तथा कृष्ण आनंद और उल्लास के प्रतीक हैं, लेकिन राग-रंग, आनंद-उल्लास यदि नियंत्रित न हो तो जीवन में कामदेव सरीखा संकट खड़ा हो जाता है। आनंद के इस अनियंत्रित आवेग को नियंत्रित करने का कार्य करते हैं- शिव। इसलिए ‘महाशिव रात्रि’ का पर्व फागुन माह में मनाया जाता है। शैव दर्शन के अनुसार निर्लिप्त होकर काम भाव रखने से ही परमानंद की प्राप्ति होती है। यदि काम को शिव तत्त्व के साथ साधा जाए तो ही कृष्ण रूपी परमानंद की प्राप्ति होती है। कृष्ण हमें सीख देते हैं कि आनंद को वैराग्य की तरह भोगना चाहिए, जबकि शिव के जीवन का मूल मंत्र ही यह है कि वैराग्य में ही परमानंद है। यह वैराग्य श्मशान में साधना करना या जीवन से कटना नहीं है, बल्कि निरपेक्षता से जीवन जीना है।
जीवन की इस यात्रा में हम एक बार फिर फागुन पर लौटते हैं। भारतीय पंचांग के अनुसार हमारे सभी महीनों के नाम नक्षत्रों पर आधारित हैं। पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र के नाम पर ही इस माह का नाम फाल्गुन यानी फागुन है। इस नक्षत्र के स्वामी शुक्राचार्य हैं, जो भोग, आनंद व ऐश्वर्य के दाता हैं। फागुन ऊर्जा और साहस के साथ-साथ हिंसा का भी प्रतीक है। यह माह ग्यारह महीने की भागदौड़ भरी जिंदगी में विश्रम कर आनंद मनाने का है। इस महीने में कार्य और विश्राम का अद्भुत संतुलन है, इसलिए इसे प्रकृति के साथ-साथ जीवन के संतुलन का माह भी कहा जाता है।फागुन मास यह सिखाता है कि जिस तरह पेड़-पौधे अपने जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को उतार फेंक नई कोपलों के रूप में नए वस्त्र धारण करते हैं। उसी तरह हमें पुराने-बुरे विचारों को त्याग नए और अच्छे विचारों को अपनाना चाहिए।  होली का त्योहार बुराइयों को खत्म करने और सभी भेदभाव भूलाकर एक होने का संदेश देता है।
सम्मिलन, मित्रता और एकता के इस पर्व का नाम होली है। यह एक सामाजिक पर्व तो है ही एकता और भाई-चारे का त्योहार होने के साथ-साथ यह राष्ट्रीय त्योहार भी है। होली पर धरती तरह-तरह के रंगों से सराबोर हो जाती है। रंगों की भूमिका हर भारतीय उत्सव में कहीं न कहीं अपना अलग असर रखती है। दीपावली की आतिशबाजी से झरते रंगीन गुल हों, रक्षाबंधन की रंगों से सजीधजी राखियाँ हों, ईद और दशहरे पर सिलवाए गए नए वस्त्र हों, रंग का महत्व हर जगह मौजूद है। फिर होली तो रंगों का ही त्योहार है। रंगों की बरसात भी ऐसी कि सारा जहान बौरा जाए। बसंत की हवा के जवान झोंके, फागुन की मस्ती और रंगों का सुरूर किसे पागल नहीं कर देगा? प्रकृति आपके साथ है। बसंत ने वातावरण रच दिया है। देर किस बात की है- उठाइए रंग और कर दीजिए हर चेहरे को रंगीन जो स्नेह पाना चाहता है, प्यार की इच्छा रखता है, अपनापन चाहता है और यह भी वह चाहता है कि यह रिश्ता होली बीत जाने के बाद भी हमेशा मधुर बना रहे।

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