गणतंत्र की एक और वर्षगांठ। एक बार फिर विवेचना। ‘गण’ और ‘तंत्र’ की छद्म निकटता की पोल खोल का अवसर ही नहीं, यह स्मरण करने का दिन भी है कि पूरी दुनिया को गणतंत्र का पाठ इसी धरा से पढ़ाया गया था। हमारे ही देश में प्रथम गणतंत्र स्थापित हुआ जिसकी सफलता पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित किया।
एक संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य के रूप में भारत गणतंत्र 26 जनवरी 1950 से लेकर 21वीं शती की अबतक की यात्रा में लोकतान्त्रिक मूल्यों और उनकी धारिता के अनेकानेक झंझावातों को झेलते हुए दुनिया के राष्ट्रों के बीच अपनी प्रतिष्ठा और पहचान बनाने के मार्ग पर अग्रसर है। परिवर्तन और उतार-चढ़ाव की कठिन डगर से गुजरते हुए हमारी चिंता कायम है कि हम किंचित आंतरिक और बाह्य कारणों से भारतीय संविधान में उल्लिखित आदर्शों, मूल्यों और नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुरूप राष्ट्र-निर्माण और चीन की तरह वैश्विक पहचान की स्तरीयता को मूर्त रूप प्रदान नहीं कर सके हैं।
दूसरी ओर हमारी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के स्तर पर निर्णय और व्यवहार की परिधि में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक मुद्दों एवं जनहित को लेकर तमाम चुनैतियां और विपर्याय परिलक्षित होते रहे हैं। इन सबके बावजूद 125 करोड़ से अधिक आबादी वाले इस देश की विविधता में समन्वय, भय और अभाव से मुक्ति, समवेशी विकास और राष्ट्र-निर्माण को नये सिरे से परिभाषित करने एवं उन्हें हासिल करने के लिए सार्थक विकल्पों की तलाश करने हेतु केंद्र, केंद्र-शासित और राज्य सरकारों को भगीरथ प्रयास की नितान्त आवश्यकता है।
21वीं शती के वर्तमान दौर में भारत गणतंत्र की विकास यात्रा तब तक सकुशल जारी नहीं रह सकती, जबतक हम अपनी ‘सुरक्षा और उन्नति’ को लेकर वैयक्तिक, सामूहिक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर आशा और विश्वास की अलख जगाने में सफल नहीं हो जाते। इसके लिए हमें सशक्त रक्षा और विकास की तैयारियों में तनिक ढील नहीं देना चाहिए।
हमें खतरा चीन और पाकिस्तान जैसे मुल्कों और उनकी भारत विरोधी कारगुजारियों तक ही नहीं है। हमारे सामने बड़ी चुनौती यह भी है कि किस प्रकार हमारे देश के अंदर पनपे आतंकवाद, नक्सलवाद, प्रायोजित कट्टरतावाद, अलगाववाद, असहिष्णुता जैसे हर प्रकार के भय से छुटकारा मिले। सामाजिक-आर्थिक अभाव से ग्रस्त निर्धन जनता को मुक्ति मिले। यत्र-तत्र-सर्वत्र समावेशी विकास और खुशहाली का मार्ग प्रशस्त हो। जारों वर्ष पहले भी भारतवर्ष में अनेक गणराज्य थे, जहां शासन व्यवस्था अत्यंत दृढ़ थी और जनता सुखी थी। गण शब्द का अर्थ संख्या या समूह से है। गणराज्य या गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ संख्या अर्थात बहुसंख्यक का शासन है। इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौ बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। वहां यह प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में ही किया गया है।
वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहां गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। कालांतर में, उनमें कुछ दोष उत्पन्न हुए और राजनीतिक व्यवस्था का झुकाव राजतंत्र की तरफ होने लगा। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। कुछ स्थानों पर मूलत: राजतंत्र था, जो बाद में गणतंत्र में परिवर्तित हुआ।
महाभारत के सभा पर्व में अर्जुन द्वारा अनेक गणराज्यों को जीतकर उन्हें कर देने वाले राज्य बनाने की बात आई है। महाभारत में गणराज्यों की व्यवस्था की भी विशद विवेचना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि जैसे गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। उनसे भी पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। आगे चलकर यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी क्षुदक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया।
सैंकड़ो वर्षों की गुलामी और आजादी के नाम मिले विभाजन, रक्तपात और शरारती पड़ोसी के बाद 26 जनवरी 1950 को पुन: गणतंत्र बने भारत ने इन वर्षों में अनेक आंधी-तूफानों का सफलतापूर्वक सामना किया है। उत्तर तथा पश्चिम से हमले झेले तो अनाज की भयंकर कमी का दौर देख। आयातित घटिया लाल गेहूं के दिनों को पीछे छोड़ते हुए हमने न केवल आत्मनिर्भरता हासिल की बल्कि निर्यात भी किया और खुले में पड़ी अनाज की हजरों बोरियों को बर्बाद होते भी चुपचाप देखा। देखा ही नहीं, आज भी स्थिति यही है कि हमारी सरकारों के पास अनाज रखने की पर्याप्त जगह है। जगह है तो तकनीक नहीं, स्टाफ नहीं। सब कुछ है तो भी संकल्प नहीं है। हमारे वैज्ञानिकों ने अनेक चमत्कार कर दिखाये तो आज हमारी सूचना प्रौद्योगिकी का लोहा सारी दुनिया मानती है। अमेरिका जैसा विश्व दादा भी बार-बार अपनी जनता को भारत की प्रतिभा का डर दिखाकर मेहनती बनाना चाहता है तो यह केवल और केवल इस देश के ‘गण’ की शक्ति प्रतिभा और समर्पण का अभिनंदन है। जय जवान, जय किसाान से जय विज्ञान इस देश के तंत्र की नहीं बल्कि ‘गण’ की शोभायात्रा है, जिसे सम्पर्ण विश्व दृग-नेत्रों से देख रहा है। अभिनन्दन है उन धरती पुत्रों की जिन्होंने अपनी जननी और जन्मभूमि की शान बढ़ाई।
तंत्र की विश्वसनीयता तो निश्चित रूप से घटी है क्योंकि कानून के शासन और कर्तव्य परायणता पर भाई-भतीजावाद, अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार हावी है। यह भी सत्य है कि देश में कानूनों की कमी नहीं हैं, नित नये भी बनते रहते हैं परन्तु ईमानदारी से क्रियान्वयन का अध्याय, लगता है सीरे सेे गायब है। देश का धन विदेशों में जा रहा है। शरारती पड़ोसी नकली नोट भेज रहा हैं, अवैध हथियारों संग आतंकवादी, नक्सलवादी,, और न जाने कौन- कौन देश के हर कोने तक अपनी पैंठ बनाये हुए हैं तो केवल इसी लिए कि ‘तंत्र’ की आंखें पूरी तरह से खुली हुई नहीं है। यह पूछना बेकार है कि आंखें जानबूझकर नहीं खोली जा रही है या स्वार्थ की पट्टी ने उन्हें ढक लिया है। दरअसल हमारे तंत्र को वास्तविक खतरा भी इन्ही तत्वो से है। जिस तरह हाल के दिनों में कश्मीर को सियासत चली है वह दुखद है। जब आतंकी बुरहान बानी को हमारी जांबाज सेना ने मारा तब उसे क्रान्तिनायक बताकर अलाप करने वाले उस दिन चुप्पी साध लिए जब जायरा के खिलाफ फतवे जारी हुए। यह शर्मिंदगी की घड़ी थी जब जायरा को इन तत्वों कमाने झुकना पड़ा और हम फिर चुपचाप तमाशबीन बन गए।
सच तो यह है कि जितना खतरा सीमाओ पर है उससे बड़ा खतरा तो भीतर घुसा हुआ है। राष्ट्र को सुन्नत और विकास शील बनाने वाली ताकते भी कमजोर पड़ जाती हैं जब हिम्मत टूटने लगती है। वास्तविक गणतंत्र तो तब मानेंगे जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक के हमारे बेटे बेटियों को एक सामान सुगम अवसर मिले और युवा ऊर्जा से राष्ट्र की प्रगति गतिमान हो। आइये कुछ ऐसा संकल्प लें की फिर किसी जायरा को कट्टरपन के आगे झुकना न पड़े और कोई कट्टरता हमारे बेटे बेटियों के पांव की बेड़ी बन कर सामने न आये।
जयहिंद
