प्रकृतिपर्व को न बनाये प्रदूषण का कारण



संजय तिवारी
अध्यक्ष , भारत संस्कृति न्यास , नयी दिल्ली

 यह वैज्ञानिक पर्व है। पर्यावरण से जुड़ा हुआ पर्व है। ज्ञान के प्रकाश का पर्व है। इस दिन हम यज्ञ-हवन अवश्य करें। घर, गली, मुहल्ले, राह, बाग-बगीचे, दुकान, पार्क, मैदान सभी को स्वच्छ और दर्शनीय बनाएं।  वायु की निर्मलता पर विशेष ध्यान दें। ध्वनि प्रदूषण न करें। रात्रि की निस्तब्धता तीव्र ध्वनियों से आहत होती है। रूग्ण शय्या पर पड़े हुए लोग, वृद्घ, बच्चों को तीव्र ध्वनियां असहनीय लगती है। आस-पड़ौस में मिष्ठान बांटिए। इससे प्रेमभाव बढ़ेगा। सामूहिक रूप से नए अन्न के साथ विशाल यज्ञ कीजिए, वातावरण शुद्घ बनेगा।सारे पर्व मानव को खुशियां और आनन्द देने के लिए हैं यह तभी संभव है, जब हम उन पर्वों को वैज्ञानिक ढंग से मनाएंगे। पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए कार्य करेंगे। स्वच्छता करके उसकी सुन्दरता को ह्रदयगम करेंगे। कार्तिक अमावस्या को मनाये जाने वाले इस पर्व का विशेष वैज्ञानिक महत्त्व है । प्रत्येक प्रमुख भारतीय पर्व दो ऋतुओं की सन्धिकाल पर मनाया जाता है । कार्तिक अमावस्या भी वर्षा ऋतु और शीत ऋतु का सन्धिकाल है । वर्षा ऋतु में माना जाता है कि कीड़ों-मकोड़ों का प्रजनन सर्वाधिक होता है तथा भारी वर्षा से प्रदूषण बहुत अधिक बढ़ जाता है क्योंकि वस्तुएँ पानी से भीगकर सड़ने लगती हैं। ऎसे समय जब वातावरण के कीट सर्वाधिक होते हैं दीपों का पर्व दीपावली मनाया जाता है । घी और विभिना प्रकार के तेलों में कीटाणु नाशक क्षमता विद्यमान होती है । घी व तेलों का दीपक जलाने से वातावरण में स्थित कीटणुओं (बैक्टीरिया) का नाश हो जाता है फलतः उनसे फैलने वाले रोगों के प्रकोप की सम्भावना कम हो जाती है । लोग इस पर्व के लिये अपने आसपास की सफाई के अतिरिक्त घरों की लिपाई- पुताई भी करते हैं जिससे वहाँ से समस्त गन्दगी समाप्त हो जाती है तथा स्वच्छ वायु प्राप्त होती है । प्राचीनकाल में जब साधन इतने सुलभ नही थे तब यही स्वच्छता बीमारियों से बचने का उपाय हुआ करती थी । आज भी इसकी प्रासंगिकता है परन्तु आज मानव निर्मित प्रदूषण इतना बढ़ गया है जिसका निवारण इस प्रकार के प्राकृतिक साधनों से सम्भव नही है फिर भी व्यक्तिगत स्वच्छता तो इसमें निहित ही है ।
मानवीय प्रवृत्ति अदभुत है। उसने, हर दिन कुछ नया और बेहतर करने की दृष्टि से दीपावली उत्सव को भव्यता से जोड़ा। इस क्रम में सबसे पहले दीपों की संख्या बढ़ी होगी। कालान्तर में जब बारूद की खोज हुई तो मानवीय प्रज्ञा ने दीपोत्सव में आतिशबाजी को जोड़ा। रसायनशास्त्र ने आतिशबाजी में मनभावन रंग भरे और उसे आवाज दी। पटाखे बनना प्रारम्भ हुआ और उनमें विविधता आई। विविधता से आकर्षण उपजा। उसका उपयोग, समृद्धि दर्शाने का जरिया बना। मौजूदा बाजार उनसे पटा पड़ा है। दूसरे देश, पटाखों के निर्माण में आर्थिक समृद्धि और रोज़गार के अवसर देख रहे हैं। पटाखों की लोकप्रियता और सामाजिक स्वीकार्यता ने उन्हें विवाह समारोहों और ख़ुशियों के इज़हार का प्रभावशाली जरिया बना दिया है। आज विज्ञान के आविष्कारों का प्रभुत्व हम अपने पर्वों त्यौहारों पर भी देख रहे । दीपावली भी इस संदर्भ में अपवाद नही है । आज दीपावली के दीपकों का स्थान मोमबत्तियों और विद्युत बल्बों ने ले लिया है जिनसे पर्यावरण में सुधार के स्थान पर प्रदूषण में ही वृद्धि होती है । यह स्थिति निश्चय ही शोचनीय व विचारणीय है । कुछ भी हो हमारे इन पर्वों से हमारे पूर्वजों की सामाजिक और प्राकृतिक पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि का पता चलता है । दीपावली का जश्न तो पूरा हो जाता है, लेकिन उसके बाद पर्यावरण की मुश्किलें बढ़ जाती हैं। जिसका खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ता है। दीपावली की रात देशभर में करोड़ों के पटाखे छोड़े जाते हैं, जिसके बाद वायु और ध्वनि प्रदूषण कई गुना बढ़ जाता है। खासकर दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में हवा और ज्यादा जहरीली हो जाती है। पटाखों का शोर और जहरीला धुआं सांस के रोगियों के लिए ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि दिवाली के दिन हवा में हानिकारक कार्बन की मात्रा कई गुना बढ़ जाती है। एक अनुमान के मुताबिक सामान्य दिनों के मुकाबले दीपावली के दिन पांच गुना ज्यादा प्रदूषण बढ़ जाता है। दीपावली की रात प्रदूषण का ग्राफ 1200 से 1500 माइको ग्राम मीटर क्यूब तक पहुंच जाता है। दीवाली के अगले दिन करीब 11 सौ, दूसरे दिन 8 सौ और फिर 4-5 दिन के बाद प्रदूषण 284 से 425 माइक्रो ग्राम मीटर क्यूब पर वापस पहुंचता है। लोग दीपावली पर जमकर पटाखे छोड़ते हैं जिसका असर  सब को झेलना पड़ता है। दिल्ली में प्रदूषण के स्तर को मापने वाली सरकारी संस्था दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति ने अपनी एक ताज़ा रिपोर्ट में कहा है कि दिवाली पर पटाखों से होने वाला प्रदूषण इस साल भी खतरनाक स्तर पर पहुंचने के आसार है। प्रदूषण के निर्धारित सुरक्षा स्तर से इस बार सात गुना तक अधिक प्रदूषण दर्ज किया गया है। हवा में मौजूद प्रदूषित तत्व सांस के माध्यम से हमारे रक्त तक पहुँच सकते हैं। कोई ये पूछ सकता है कि पटाखों में ऐसा क्या होता जिसकी वजह से प्रदूषण बढ़ जाता है। पटाखों में बारूद, चारकोल और सल्फर के केमिकल्स का इस्तेमाल होता है जिससे पटाखे से चिनगारी, धुआं और आवाज निकलती है। इनके मिलने से प्रदूषण होता है। यहां एक सवाल यह भी है कि पटाखों से होने वाले प्रदूषण को लेकर सरकारी मानक क्या कहते हैं? सरकारी मानक केवल ध्वनि प्रदूषण की बात करते हैं। पटाखों से होने वाले वायु प्रदूषण को लेकर कोई मानक तय नहीं किए गए हैं। पटाखा बनाने के काम में आने वाले रसायनों को लेकर सरकारी दिशा निर्देश हैं। इनसे कितनी आवाज आ सकती है। उस पर तो नियम हैं लेकिन इनसे निकलने वाले धुएं पर कुछ नहीं कहा गया है। हालांकि इस मसले का एक और पहलू भी है। कि अगर धुएं को लेकर मानक तय भी कर दिए जाएं तो पटाखों के ज्यादा इस्तेमाल की वजह से हालात वही रहेंगे। मसलन कोई बहुत ज्यादा पटाखे छोड़ता है तो कुछ नहीं बदलेगा। हर साल दीपावली पर करोड़ों रुपयों के पटाखों का उपयोग होता है। यह सिलसिला कई दिन तक चलता है। कुछ लोग इसे फिजूलखर्ची मानते हैं तो कुछ उसे परम्परा से जोड़कर देखते हैं। पटाखों से बसाहटों, व्यावसायिक, औद्योगिक और ग्रामीण इलाकों की हवा में तांबा, कैलशियम, गंधक, एल्युमीनियम और बेरियम प्रदूषण फैलाते हैं। उल्लेखित धातुओं के अंश कोहरे के साथ मिलकर अनेक दिनों तक हवा में बने रहते हैं। उनके हवा में मौजूद रहने के कारण प्रदूषण का स्तर कुछ समय के लिये काफी बढ़ जाता है। विदित है कि विभिन्न कारणों से देश के अनेक इलाकों में वायु प्रदूषण सुरक्षित सीमा से अधिक है। ऐसे में पटाखों से होने वाला प्रदूषण, भले ही अस्थायी प्रकृति का होता है, उसे और अधिक हानिकारक बना देता है। पटाखों के चलाने से स्थानीय मौसम प्रभावित होता है तथा निम्न बीमारियों की सम्भावना बनती और बढ़ती है-




घटक
सेहत पर प्रभाव
तांबा
श्वास तंत्र में जलन
कैडमियम
किडनी को हानि, रक्त अल्पता
सीसा
स्नायु तंत्र को हानि
मैगनिशियम
बुखार
सोडियम
त्वचा पर असर
सल्फर डाइऑक्साइड
दम घुटना ऑखों और गले में जलन
नाइट्रेट
मस्तिष्क को क्षति की सम्भावना
नाइट्रेट
बेहोशी की सम्भावना

औद्योगिक इलाकों की हवा में विभिन्न मात्रा में राख, कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड और अनेक हानिकारक तथा विषैली गैसें और विषाक्त कण होते हैं। उन इलाकों में पटाखे फोड़ने से प्रदूषण की गम्भीरता तथा होने वाले नुकसान का स्तर कुछ दिनों के लिये बहुत अधिक बढ़ जाता है। महानगरों में वाहनों के ईंधन से निकले धुएँ के कारण सामान्यतः प्रदूषण का स्तर सुरक्षित सीमा से अधिक होता है। पटाखे उसे कुछ दिनों के लिये बढ़ा देते हैं। उसके कारण अनेक जानलेवा बीमारियों यथा हृदय रोग, फेफड़े, गालब्लेडर, गुर्दे, यकृत एवं कैंसर जैसे रोगों का खतरा बढ़ जाता है। इसके अलावा, पटाखों से मकानों में आग लगने तथा लोगों खासकर बच्चों के जलने की सम्भावना होती है इसलिये सभी लोग खासकर बच्चों को नीचे लिखी बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

1. पटाखों को सुरक्षित जगह पर रखें। उन्हें ज्वलनशील पदार्थों से दूर ले जाकर ही जलाएँ।
2. वाहनों के आसपास पटाखे नहीं जलाएँ।
3. पटाखे जलाते समय सूती कपड़े पहनें। सिन्थेटिक कपडे ज्वलनशील होते हैं। उनसे बचें।
4. पटाखे जलाते समय घर की खिड़की और दरवाजे बन्द रखें। इससे आग लगने का खतरा घटेगा।
5. हाथ में रखकर फटाके नहीं जलाएँ। बच्चों को वयस्कों/बुजुर्गों की देखरेख में पटाखे जलाने दें।
6. साधारण जली हुई जगह पर तत्काल पानी डालें और दवा लगाएँ।

7. घर में पानी, रेत, कम्बल और दवा का इन्तजाम रखें। पटाखे पर दी हुई हिदायतों का पालन करें।
8. उसके धुएँ से दूर रहें। धुएँ में श्वास नहीं लें।
9. जोरदार आवाज करने वाले फटाकों से छोटे बच्चों और अस्वस्थ वृद्धों को दूर रखें। उनसे बहरेपन का खतरा होता है।

हवा के प्रदूषण के अलावा, पटाखों से ध्वनि प्रदूषण होता है। कई बार शोर का स्तर सुरक्षित सीमा को पार कर जाता है। यह शोर कई लोगों तथा नवजात बच्चों की नींद उड़ा देता है। नवजात बच्चों और कतिपय गर्भवती महिलाओं को तो वह डराता है। वह पशु-पक्षियों तथा जानवरों के लिये भी अभीष्ठ नहीं है। उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने सुरक्षित सीमा (125 डेसीबल) से अधिक शोर करने वाले पटाखों के जलाने पर रोक लगाई है। इसके अलावा शान्तिपूर्ण माहौल में नींद लेने के आम नागरिक के फंडामेंटल अधिकार की रक्षा के लिये उच्चतम न्यायालय ने दीपावली और दशहरे के अवसर पर रात्रि 10 बजे से लेकर सुबह 6 बजे तक पटाखों के चलाने को प्रतिबन्धित किया है। इसके अतिरिक्त, फटाकों से निकले धुएँ के कारण वातावरण में दृश्यता घटती है। दृश्यता घटने से वाहन चालकों कठिनाई होती है और कई बार वह दुर्घटना का कारण बनती है। इसके अलावा पटाखे बनाने वाली कम्पनियों के कारखानों में होने वाली दुर्घटनाएँ और मौतें कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनसे सबक लेना चाहिए। इन मुद्दों में स्वास्थ्य मानकों की अनदेखी, बाल मजदूरी नियमों की अवहेलना या असावधानी मुख्य हैं। पटाखों का उपयोग हमारी परम्परा का अंग है। चूँकि हमारी परम्परा पर्यावरण की पोषक रही है इसलिये हमें पर्यावरण हितैषी और सुरक्षित दीपावली मनाना चाहिए। यह काम प्रत्येक नागरिक अपने स्तर पर खुद कर सकता है।
 भारत का संविधान रेखांकित करता है कि स्वच्छ पर्यावरण उपलब्ध कराना केवल राज्यों की ही जिम्मेदारी नहीं है अपितु वह प्रत्येक नागरिक का दायित्व भी है। आर्टिकल 48 अ और आर्टिकल 51 अ (जी) तथा आर्टिकल 21 की व्याख्या से उपर्युक्त तथ्य उजागर होते हैं। पर्यावरण हितैषी और सुरक्षित दीपावली मनाने के लिये निम्न कदम उठाए जा सकते हैं-

1. पटाखों का कम-से-कम उपयोग। इससे पर्यावरणी नुकसान कम होंगे। कम कचरा पैदा होगा। कचरा निष्पादन पर अधिक बोझ नहीं पड़ेगा।
2. कतिपय प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन को लगाम लगाने के लिये कम-से-कम अनावश्यक खरीद। इससे पर्यावरणी नुकसान का स्तर का ग्राफ थमेगा।
3. दीपावली पर कम अवधि के लिये बिजली का उपयोग। ऐसा करने से बिजली उत्पादन करने वाले संसाधनों की खपत पर अनावश्यक बोझ नहीं पड़ेगा।

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