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आश्रम और परिवार

आश्रम और परिवार

आश्रम और परिवार

संजय तिवारी 
सनातन संस्कृति में आश्रम वह स्थान है जहां संस्कारयुक्त मनुष्य निवास करते है। यह आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी सभी का और सभी के लिए है। आश्रम वस्तुतः वह स्थल है जिसे आज घर की संज्ञा दी गयी है लेकिन रूढ़ि ऐसी स्थापित कर दी गयी है कि आश्रम केवल सन्यासी का निवास ही है। ऐसा सांस्कृतिक क्षरण और हजारों वर्षों के संघर्ष से उपजी सभ्यता के कारण हुआ है। मानव जीवन को सनातन संहिता में जिन चार आश्रमो में विभाजित किया गया है उनमें कहीं यह नही कहा गया कि आश्रम केवल जंगल मे होंगे और वहां सन्यास के बाद ही रहना है। ब्रह्मचर्य , गृहस्थ और वानप्रस्थ की अवस्था भी आश्रम ही है । जो परिवार की परिकल्पना और स्थापना है उसमें ब्रह्मचर्य अवस्था से सन्यास की अवस्था तक के सभी सदस्यों के लिए स्थान है। इसलिए आश्रम शब्द से उलझने की आवश्यकता नही। जीवन की चारों अवस्थाओं के लिए आश्रम है। इसे इस प्रकार से भी समझिए कि हमारे सभी ऋषि मुनि आश्रम में रहते थे। सभी की पूरी गृहस्थी थी। ऋषि पत्नियां और ऋषि कुमार या ऋषि कन्याएं भी साथ रहती थीं। उस समय केवल राजा के निवास को  प्रासाद की संज्ञा मिली थी। 
सनातन संस्कृति में कुल या परिवार के लिए भी आवश्यक अवयवों का निर्धारण शास्त्रों में किया गया है। एक सनातन परिवार में उसके सभी सदस्यों के साथ ही गंगा, गौरी अर्थात कन्या, गोमाता, गीता, गायत्री अर्थात वेद और गोविंद अर्थात मंदिर और गुरु की अनिवार्यता बताई गई है। यदि कुल, कुटुंब अर्थात परिवार में ये सभी अवयव हैं तो वहां शील, संस्कार और मर्यादा स्वतः स्थापित होती है।
- संस्कृति पर्व
ये हैं महाभारत काल के 35  प्रमुख नगर

ये हैं महाभारत काल के 35 प्रमुख नगर

ये हैं महाभारत काल के 35  प्रमुख नगर 
संजय तिवारी 
महाभारतकाल में भारतवर्ष का भूगोल क्या था।  कौन से नगर या राज्य थे जिनका प्रभाव इस काल में सर्वाधिक था। भारतवर्ष का लगभग पांच हाजरा वर्ष पूर्व का वह भूगोल आज किन परिस्थितियों में है।  ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जिनके बारे में जान सामान्य से लेकर नयी पीढ़ी तक सब कुछ जानना चाहती है। ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर देश में कोई ख़ास अकादमिक कार्य नहीं हुआ है। महाभारत जैसे ऐतिहासिक घटनाक्रम को पश्चिमी और वामपंथी प्रभाव में लकाल्पनिक और मिथ बता दिया गया।  हालांकि अब दुनिया का आधुनिक विज्ञान खुद इस बात को स्वीकार कर इस विषय पर कार्य कर रहा है लेकिन भारत में अभी भी यह विषय केवल धार्मिक बनाकर छोड़ दिया गया है। जब महाभारत युद्ध हुआ तब भारतवर्ष कैसा था। इस विषय को लेकर छोटे छोटे सन्दर्भों के साथ हम  आ रहे हैं। इसी क्रम में  महाभारत में वर्णित जिन 35 राज्यों और शहरों के बारे में जिक्र करने जा रहे हैं, वे आज भी मौजूद हैं। आप भी देखिए।



1. गांधार
 आज के कंधार को कभी गांधार के रूप में जाना जाता था। यह देश पाकिस्तान के रावलपिन्डी से लेकर सुदूर अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी वहां के राजा सुबल की पुत्री थीं। गांधारी के भाई शकुनी दुर्योधन के मामा थे।

2. तक्षशिला
तक्षशिला गांधार देश की राजधानी थी। इसे वर्तमान में रावलपिन्डी कहा जाता है। तक्षशिला को ज्ञान और शिक्षा की नगरी भी कहा गया है।

3. केकय प्रदेश
 जम्मू-कश्मीर के उत्तरी इलाके का उल्लेख महाभारत में केकय प्रदेश के रूप में है। केकय प्रदेश के राजा जयसेन का विवाह वसुदेव की बहन राधादेवी के साथ हुआ था। उनका पुत्र विन्द जरासंध, दुर्योधन का मित्र था। महाभारत के युद्ध में विन्द ने कौरवों का साथ दिया था।

4. मद्र देश
केकय प्रदेश से ही सटा हुआ मद्र देश का आशय जम्मू-कश्मीर से ही है। एतरेय ब्राह्मण के मुताबिक, हिमालय के नजदीक होने की वजह से मद्र देश को उत्तर कुरू भी कहा जाता था। महाभारत काल में मद्र देश के राजा शल्य थे, जिनकी बहन माद्री का विवाह राजा पाण्डु से हुआ था। नकुल और सहदेव माद्री के पुत्र थे।

5. उज्जनक
आज के नैनीताल का जिक्र महाभारत में उज्जनक के रूप में किया गया है। गुरु द्रोणचार्य यहां पांडवों और कौरवों की अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देते थे। कुन्ती पुत्र भीम ने गुरु द्रोण के आदेश पर यहां एक शिवलिंग की स्थापना की थी। यही वजह है कि इस क्षेत्र को भीमशंकर के नाम से भी जाना जाता है। यहां भगवान शिव का एक विशाल मंदिर है। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह शिवलिंग 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है।

6. शिवि देश
 महाभारत काल में दक्षिण पंजाब को शिवि देश कहा जाता था। महाभारत में महाराज उशीनर का जिक्र है, जिनके पौत्र शैव्य थे। शैव्य की पुत्री देविका का विवाह युधिष्ठिर से हुआ था। शैव्य एक महान धनुर्धारी थे और उन्होंने कुरुक्षेत्र के युद्ध में पांडवों का साथ दिया था।

7. वाणगंगा
 कुरुक्षेत्र से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है वाणगंगा। कहा जाता है कि महाभारत की भीषण लड़ाई में घायल पितामह भीष्म को यहां सर-सैय्या पर लिटाया गया था। कथा के मुताबिक, भीष्ण ने प्यास लगने पर जब पानी की मांग की तो अर्जुन ने अपने वाणों से धरती पर प्रहार किया और गंगा की धारा फूट पड़ी। यही वजह है कि इस स्थान को वाणगंगा कहा जाता है।

8. कुरुक्षेत्र
 हरियाणा के अम्बाला इलाके को कुरुक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। यहां महाभारत की प्रसिद्ध लड़ाई हुई थी। यही नहीं, आदिकाल में ब्रह्माजी ने यहां यज्ञ का आयोजन किया था। इस स्थान पर एक ब्रह्म सरोवर या ब्रह्मकुंड भी है। श्रीमद् भागवत में लिखा हुआ है कि महाभारत के युद्ध से पहले भगवान श्रीकृष्ण ने यदुवंश के अन्य सदस्यों के साथ इस सरोवर में स्नान किया था।

9. हस्तिनापुर
 महाभारत में उल्लिखित हस्तिनापुर का इलाका मेरठ के आसपास है। यह स्थान चन्द्रवंशी राजाओं की राजधानी थी। सही मायने में महाभारत युद्ध की पटकथा यहीं लिखी गई थी। महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने हस्तिनापुर को अपने राज्य की राजधानी बनाया।

10. वर्नावत
यह स्थान भी उत्तर प्रदेश के मेरठ के नजदीक ही माना जाता है। वर्णावत में पांडवों को छल से मारने के लिए दुर्योधन ने लाक्षागृह का निर्माण करवाया था। यह स्थान गंगा नदी के किनारे है। महाभारत की कथा के मुताबिक, इस ऐतिहासिक युद्ध को टालने के लिए पांडवों ने जिन पांच गांवों की मांग रखी थी, उनमें एक वर्णावत भी था। आज भी यहां एक छोटा सा गांव है, जिसका नाम वर्णावा है।

11. पांचाल प्रदेश
हिमालय की तराई का इलाका पांचाल प्रदेश के रूप में उल्लिखित है। पांचाल के राजा द्रुपद थे, जिनकी पुत्री द्रौपदी का विवाह अर्जुन के साथ हुआ था। द्रौपदी को पांचाली के नाम से भी जाना जाता है।

12. इन्द्रप्रस्थ
मौजूदा समय में दक्षिण दिल्ली के इस इलाके का वर्णन महाभारत में इन्द्रप्रस्थ के रूप में है। कथा के मुताबिक, इस स्थान पर एक वियावान जंगल था, जिसका नाम खांडव-वन था। पांडवों ने विश्वकर्मा की मदद से यहां अपनी राजधानी बनाई थी। इन्द्रप्रस्थ नामक छोटा सा कस्बा आज भी मौजूद है।

13. वृन्दावन
 यह स्थान मथुरा से करीब 10 किलोमीटर दूर है। वृन्दावन को भगवान कृष्ण की बाल-लीलाओं के लिए जाना जाता है। यहां का बांके-बिहारी मंदिर प्रसिद्ध है।

14. गोकुल
 यमुना नदी के किनारे बसा हुआ यह स्थान भी मथुरा से करीब 8 किलोमीटर दूर है। कंस से रक्षा के लिए कृष्ण के पिता वसुदेव ने उन्हें अपने मित्र नंदराय के घर गोकुल में छोड़ दिया था। कृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम गोकुल में साथ-साथ पले-बढ़े थे।

15. बरसाना
 यह स्थान भी उत्तर प्रदेश में है। यहां की चार पहाड़ियां के बारे में कहा जाता है कि ये ब्रह्मा के चार मुख हैं।

16. मथुरा
 यमुना नदी के किनारे बसा हुआ यह प्रसिद्ध शहर हिन्दू धर्म के लिए अनुयायियों के लिए बेहद प्रसिद्ध है। यहां राजा कंस के कारागार में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। यहीं पर श्रीकृष्ण ने बाद में कंस की हत्या की थी। बाद में कृष्ण के पौत्र वृजनाथ को मथुरा की राजगद्दी दी गई।

17. अंग देश
 वर्तमान में उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के इलाके का उल्लेख महाभारत में अंगदेश के रूप में है। दुर्योधन ने कर्ण को इस देश का राजा घोषित किया था। मान्यताओं के मुताबिक, जरासंध ने अंग देश दुर्योधन को उपहारस्वरूप भेंट किया था। इस स्थान को शक्तिपीठ के रूप में भी जाना जाता है।

18. कौशाम्बी
कौशाम्बी वत्स देश की राजधानी थी। वर्तमान में इलाहाबाद के नजदीक इस नगर के लोगों ने महाभारत के युद्ध में कौरवों का साथ दिया था। बाद में कुरुवंशियों ने कौशाम्बी पर अपना अधिकार कर लिया। परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया।

19. काशी
महाभारत काल में काशी को शिक्षा का गढ़ माना जाता था। महाभारत की कथा के मुताबिक, पितामह भीष्म काशी नरेश की पुत्रियों अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका को जीत कर ले गए थे ताकि उनका विवाह विचित्रवीर्य से कर सकें। अम्बा के प्रेम संबंध राजा शल्य के साथ थे, इसलिए उसने विचित्रवीर्य से विवाह से इन्कार कर दिया। अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ कर दिया गया। विचित्रवीर्य के अम्बा और अम्बालिका से दो पुत्र धृतराष्ट्र और पान्डु हुए। बाद में धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव कहलाए और पान्डु के पांडव।

20. एकचक्रनगरी
वर्तमान कालखंड में बिहार का आरा जिला महाभारत काल में एकचक्रनगरी के रूप में जाना जाता था। लाक्षागृह की साजिश से बचने के बाद पांडव काफी समय तक एकचक्रनगरी में रहे थे। इस स्थान पर भीम ने बकासुर नामक एक राक्षक का अन्त किया था। महाभारत युद्ध के बाद जब युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया था, उस समय बकासुर के पुत्र भीषक ने उनका घोड़ा पकड कर रख लिया था। बाद में वह अर्जुन के हाथों मारा गया।

21. मगध
दक्षिण बिहार में मौजूद मगध जरासंध की राजधानी थी। जरासंध की दो पुत्रियां अस्ती और प्राप्ति का विवाह कंस से हुआ था। जब भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया, तब वह अनायास ही जरासंध के दुश्मन बन बैठे। जरासंध ने मथुरा पर कई बार हमला किया। बाद में एक मल्लयुद्ध के दौरान भीम ने जरासंध का अंत किया। महाभारत के युद्ध में मगध की जनता ने पांडवों का समर्थन किया था।

22. पुन्डरू देश
मौजूदा समय में बिहार के इस स्थान पर राजा पोन्ड्रक का राज था। पोन्ड्रक जरासंध का मित्र था और उसे लगता था कि वह कृष्ण है। उसने न केवल कृष्ण का वेश धारण किया था, बल्कि उसे वासुदेव और पुरुषोत्तम कहलवाना पसन्द था। द्रौपदी के स्वयंवर में वह भी मौजूद था। कृष्ण से उसकी दुश्मनी जगजाहिर थी। द्वारका पर एक हमले के दौरान वह भगवान श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया।

23. प्रागज्योतिषपुर
गुवाहाटी का उल्लेख महाभारत में प्रागज्योतिषपुर के रूप में किया गया है। महाभारत काल में यहां नरकासुर का राज था, जिसने 16 हजार लड़कियों को बन्दी बना रखा था। बाद में श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया और सभी 16 हजार लड़कियों को वहां से छुड़ाकर द्वारका लाए। उन्होंने सभी से विवाह किया। मान्यता है कि यहां के प्रसिद्ध कामख्या देवी मंदिर को नरकासुर ने बनवाया था।

24. कामख्या
 गुवाहाटी से करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कामख्या एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। भागवत पुराण के मुताबिक, जब भगवान शिव सती के मृत शरीर को लेकर बदहवाश इधर-उधर भाग रहे थे, तभी भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के मृत शरीर के कई टुकड़े कर दिए। इसका आशय यह था कि भगवान शिव को सती के मृत शरीर के भार से मुक्ति मिल जाए। सती के अंगों के 51 टुकड़े जगह-जगह गिरे और बाद में ये स्थान शक्तिपीठ बने। कामख्या भी उन्हीं शक्तिपीठों में से एक है।

25. मणिपुर
नगालैन्ड, असम, मिजोरम और वर्मा से घिरा हुआ मणिपुर महाभारत काल से भी पुराना है। मणिपुर के राजा चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा का विवाह अर्जुन के साथ हुआ था। इस विवाह से एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम था बभ्रुवाहन। राजा चित्रवाहन की मृत्यु के बाद बभ्रुवाहन को यहां का राजपाट दिया गया। बभ्रुवाहन ने युधिष्ठिर द्वारा आयोजित किए गए राजसूय यज्ञ में भाग लिया था।

26. सिन्धु देश
 सिन्धु देश का तात्पर्य प्राचीन सिन्धु सभ्यता से है। यह स्थान न केवल अपनी कला और साहित्य के लिए विख्यात था, बल्कि वाणिज्य और व्यापार में भी यह अग्रणी था। यहां के राजा जयद्रथ का विवाह धृतराष्ट्र की पुत्री दुःश्शाला के साथ हुआ था। महाभारत के युद्ध में जयद्रथ ने कौरवों का साथ दिया था और चक्रव्युह के दौरान अभिमन्यू की मौत में उसकी बड़ी भूमिका थी।

27. मत्स्य देश
राजस्थान के उत्तरी इलाके का उल्लेख महाभारत में मत्स्य देश के रूप में है। इसकी राजधानी थी विराटनगरी। अज्ञातवास के दौरान पांडव वेश बदल कर राजा विराट के सेवक बन कर रहे थे। यहां राजा विराट के सेनापति और साले कीचक ने द्रौपदी पर बुरी नजर डाली थी। बाद में भीम ने उसकी हत्या कर दी। अर्जुन के पुत्र अभिमन्यू का विवाह राजा विराट की पुत्री उत्तरा के साथ हुआ था।

28. मुचकुन्द तीर्थ
 यह स्थान धौलपुर, राजस्थान में है। मथुरा पर जीत हासिल करने के बाद कालयावन ने भगवान श्रीकृष्ण का पीछा किया तो उन्होंने खुद को एक गुफा में छुपा लिया। उस गुफा में मुचकुन्द सो रहे थे, उन पर कृष्ण ने अपना पीताम्बर डाल दिया। कृष्ण का पीछा करते हुए कालयावन भी उसी गुफा में आ पहुंचा। मुचकुन्द को कृष्ण समझकर उसने उन्हें जगा दिया। जैसे ही मुचकुन्द ने आंख खोला तो कालयावन जलकर भस्म हो गया। मान्यताओं के मुताबिक, महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब पांडव हिमालय की तरफ चले गए और कृष्ण गोलोक निवासी हो गए, तब कलयुग ने पहली बार यहां अपने पग रखे थे।

29. पाटन
 महाभारत की कथा के मुताबिक, गुजरात का पाटन द्वापर युग में एक प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्र था। पाटन के नजदीक ही भीम ने हिडिम्ब नामक राक्षस का संहार किया था और उसकी बहन हिडिम्बा से विवाह किया। हिडिम्बा ने बाद में एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम था घटोत्कच्छ। घटोत्कच्छ और उनके पुत्र बर्बरीक की कहानी महाभारत में विस्तार से दी गई है।

30. द्वारका
 माना जाता है कि गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित यह स्थान कालान्तर में समुन्दर में समा गया। कथाओं के मुताबिक, जरासंध के बार-बार के हमलों से यदुवंशियों को बचाने के लिए कृष्ण मथुरा से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर द्वारका ले गए।

31. प्रभाष
 गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि यह स्थान भगवान श्रीकृष्ण का निवास-स्थान रहा है। महाभारत कथा के मुताबिक, यहां भगवान श्रीकृष्ण पैर के अंगूठे में तीर लगने की वजह से घायल हो गए थे। उनके गोलोकवासी होने के बाद द्वारका नगरी समुन्दर में डूब गई। विशेषज्ञ मानते हैं कि समुन्दर के सतह पर द्वारका नगरी के अवेशष मिले हैं।

32. अवन्तिका
 मध्यप्रदेश के उज्जैन का उल्लेख महाभारत में अवन्तिका के रूप में मिलता है। यहां ऋषि सांदपनी का आश्रम था। अवन्तिका को देश के सात प्रमुख पवित्र नगरों में एक माना जाता है। यहां भगवान शिव के 12 ज्योर्तिलिंगों में एक महाकाल लिंग स्थापित है।

33. चेदी
 वर्तमान में ग्वालियर क्षेत्र को महाभारत काल में चेदी देश के रूप में जाना जाता था। गंगा व नर्मदा के मध्य स्थित चेदी महाभारत काल के संपन्न नगरों में एक था। इस राज्य पर श्रीकृष्ण के फुफेरे भाई शिशुपाल का राज था। शिशुपाल रुक्मिणी से विवाह करना चाहता था, लेकिन श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर उनसे विवाह रचा लिया। इस घटना की वजह से शिशुपाल और श्रीकृष्ण के बीच संबंध खराब हो गए। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय चेदी नरेश शिशुपाल को भी आमंत्रित किया गया था। शिशुपाल ने यहां कृष्ण को बुरा-भला कहा, तो कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका गला काट दिया। महाभरत की कथा के मुताबिक, दुश्मनी की बात सामने आने पर श्रीकृष्ण की बुआ उनसे शिशुपाल को अभयदान देने की गुजारिश की थी। इस पर श्रीकृष्ण ने बुआ से कहा था कि वह शिशुपाल के 100 अपराधों को माफ कर दें, लेकिन 101वीं गलती पर माफ नहीं करेंगे।

34. सोणितपुर
 मध्यप्रदेश के इटारसी को महाभारत काल में सोणितपुर के नाम से जाना जाता था। सोणितपुर पर वाणासुर का राज था। वाणासुर की पुत्री उषा का विवाह भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के साथ सम्पन्न हुआ था। यह स्थान हिन्दुओं के लिए एक पवित्र तीर्थ है।

35. विदर्भ
 महाभारतकाल में विदर्भ क्षेत्र पर जरासंध के मित्र राजा भीष्मक का शासन था। रुक्मिणी भीष्मक की पुत्री थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर उनसे विवाह रचाया था। यही वजह थी कि भीष्मक उन्हें अपना शत्रु मानने लगे। जब पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ किया था, तब भीष्मक ने उनका घोड़ा रोक लिया था। सहदेव ने भीष्मक को युद्ध में हरा दिया।
क्रमशः 

वन्देमातरम की धुन पर होगी बीटिंग द रिट्रीट

वन्देमातरम की धुन पर होगी बीटिंग द रिट्रीट

काबा और मक्केश्वर महादेव शिवलिंग

काबा और मक्केश्वर महादेव शिवलिंग


जब इस्लाम नहीं था - 2 
काबा और मक्केश्वर महादेव शिवलिंग


इस्लाम से बहुत पहले से यह धरती, , यह आकाश यह वायुमंडल , यह सौर मंडल सभी थे, हैं और आगे भी रहेंगे। दुनिया आजकल यह जानने का प्रयास कर रही है कि धरती पर जब इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था तब यह धरती आखिर कैसी रही होगी। इसलाम से महज 600  साल पहले ही ईसाइयत का प्रादुर्भाव हुआ था। अब तो यह दुनिया मान ही चुकी है कि इन दोनों से बहुत हजार साल पहले ही धरती पर राम और कृष्ण जैसे दो ऐतिहासिक व्यक्तियों का जन्म भारत में हो चुका था। कुछ साल पहले तक इन दोनों को मिथकीय चरित्र कहने का चलन था लेकिन अब सब प्रमाणित हो चुका है। ऐसे में अब यह जान लेना बहुत आवश्यक हो जाता है कि जब धरती पर  और क्रिश्चियन जैसी उपासना पद्धतियां नहीं थीं तब धरती कैसी रही होगी। आइये पहले विवेचना इस्लाम से ही करते हैं।     
इस्लाम के लिए काबा कितना महत्वपूर्ण है , इस बारे में किसी को बताने की आवश्यकता नहीं। काबा ही इस्लाम की सबसे पहली उपासनास्थली  है। इस्लाम के चार धर्म–स्कन्धों में 'हज्ज़' या 'काबा' यात्रा भी एक है। हज तीर्थयात्रा के दौरान भी मुस्लिमों को तवाफ़ नामक महत्त्वपूर्ण पांथिक  परंपरा पूरी करने का निर्देश है, जिसमें काबे की सात परिक्रमाएँ की जाती हैं। पुराणों में भी शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में मक्का के महादेव का नाम आता है। वस्तुतः काबा (अरबी: الكعبة, अंग्रेज़ी: Ka'aba, सही उच्चारण: क'आबा) मक्का, सउदी अरब में स्थित एक घनाकार (क्यूब के आकार की) इमारत है जो इस्लाम धर्म का सबसे पवित्र स्थल है। उच्च भाव और ईश्वर के प्रति प्रेम नमाज़ (=नमस्) की उपर्युक्त प्रार्थनाओं में वर्णित है, पाठक उस पर स्वयं विचार कर सकते हैं। सांधिक नमाज़ का इस्लाम में बड़ा मान है। वस्तुतः वह संघशक्ति को बढ़ाने वाला भी है।  एशिया, यूरोप और अफ़्रीका निवासी हजारों मुसलमान जिस समय एक ही स्वर, एक ही भाषा और एक भाव से प्रेरित हो ईश्वर के चरणार्विन्द में अपनी भक्ति पुष्पाजंलि अर्पण करने के लिए एकत्र होते हैं, तो कैसा आनन्दमय दृश्य होता है। उस समय की समानता का क्या कहना। एक ही पंक्ति में दरिद्र और बादशाह दोनों खड़े होकर बता देते हैं कि ईश्वर के सामने सब ही बराबर हैं। इस्लाम के चार धर्म–स्कन्धों में 'हज्ज़' या 'काबा' यात्रा भी एक है। इस बात के अनेक ऐतिहासिक साक्ष्य हैं कि 'काबा' अरब का प्राचीन मन्दिर है जो मक्का शहर में है।
इसके वास्तविक प्रमाण के रूप में रूप में विक्रम की प्रथम शताब्दी के आरम्भ में रोमक इतिहास लेखक 'द्यौद्रस् सलस्' लिखता है -
यहाँ इस देश में एक मन्दिर है, जो अरबों का अत्यन्त पूजनीय है। महात्मा मुहम्मद के जन्म से प्रायः 600 वर्ष पूर्व ही इस मन्दिर की इतनी ख्याति थी कि 'सिरिया, अराक' आदि प्रदेशों से सहस्रों यात्री प्रतिवर्ष दर्शनार्थ आया  करते थे। पुराणों में भी शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में मक्का के महादेव का नाम आता है। ह. ज्रु ल्–अस्वद् (=कृष्ण पाषाण) इन सब विचारों का केन्द्र प्रतीत होता है। यह काबा दीवार में लगा हुआ है। आज भी उस पर चुम्बन देना प्रत्येक 'हाज़ी' (मक्कायात्री) का कर्तव्य है। यद्यपि क़ुरान में इसका विधान नहीं, किन्तु पुराण के समान माननीय 'हदीस' ग्रन्थों में उसे भूमक नर भगवान का दाहिना हाथ कहा गया है। यही मक्केश्वरनाथ है जो काबा की सभी मूर्तियों के तोड़े जाने पर भी स्वयं ज्यों का त्यों विद्यमान है। इतना ही नहीं, बल्कि इनका जादू मुसलमानों पर भी चले बिना नहीं रहा और वह पत्थर को बोसा यानी अँकवार  देना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते हैं, यद्यपि अन्य स्थानों पर मूर्तिपूजा के घोर विरोधी हैं।
इस पवित्र मन्दिर के विषय में क़ुरान में आया है-
निस्सन्देह पहला घर मक्का में स्थापित किया गया, जो कि धन्य है तथा ज्ञानियों के लिए उपदेश है।  महाप्रभु ने मनुष्य के लिए पवित्र गृह 'कअबा' बनाया।
जिस प्रकार यहाँ काबा के लिए 'पहला घर' और 'पवित्र गृह' कहा गया है, उसी प्रकार मक्का नगर के लिए भी उम्मुलकुरा (ग्रामों की माँ) अथवा पहला शब्द आया है। उस समय मक्का के मन्दिर में 360 मूर्तियाँ थीं। आरम्भ में जब 'किधर मुख करके नमाज़ पढ़ी जाए' यह सवाल महात्मा मुहम्मद के सम्मुख आया तो एकेश्वर भक्त महात्मा ने सारे अरब के श्रद्वास्पद किन्तु मूर्ति पूर्ण मक्का मन्दिर को अयोग्य समझा, अमूर्तिपूजक एकेश्वर भक्त यहूदियों के मुख्य स्थान 'योरुशिलम्' मन्दिर की ओर मुख करके नमाज़ पढ़ने की आज्ञा अपने अनुयायियों को दी। इस प्रकार मक्का निवास के अन्त तक अर्थात् तेरह वर्ष इसी प्रकार नमाज़ पढ़ी जाती रही। मदीना में आने पर भी कितने ही दिनों तक 'योरुशिलम्' की ओर मुख करके नमाज़ पढ़ी जाती रही। अन्त में यहूदियों के अभिमान-हमारे ही काबा का आश्रय मुहम्मद के अनुयायी भी करते हैं-को हटाने के लिए क़ुरान के निम्न आदेश के अनुसार पवित्र काबा मन्दिर ही मुसलमानों का किब्ला (अग्रिम स्थान) हुआ। उक्त वाक्य यह है-

"अनजान लोग कहेंगे, इन (मुसलमानों) को क्या बात थी, जिसने की इन्हें किब्ला से फेर दिया। कह (हे मुहम्मद !) ईश्वर के लिए पूर्व–पश्चिम सब समान हैं।"
"हम तेरे मुख को (हे मुहम्मद !) उठा देखते हैं। अवश्य तुझे हम उस किब्ला की ओर फेरेंगे, जो तुझे अभीष्ट है। सो जहाँ तुम रहो, वहाँ से अपने मुँह को पवित्र मस्ज़िद (काबा) की ओर फेर लो, और वह लोग जिनको पुस्तक (तौरेत) दी गई (अर्थात् यहूदी) निस्सन्देह जानते हैं कि उनके ईश्वर की ओर से यही ठीक है।"
"यदि तू सम्पूर्ण प्रमाण लावे, तब भी किताब वाले (यहूदी) तेरे किब्ले के अनुयायी न होंगे, और न तू उनके किब्ले का अनुयायी हो।"
प्रथम वाक्य में 'क़िब्ला' बदलने पर होने वाले आक्षेप का उत्तर दूसरे और तीसरे में बदलने का विधान किया गया है। यह 'क़िब्ला' का विधान भी वास्तव में मुसलमानों की एकता के अभिप्राय से किया गया है। वास्तुव में तो—"प्रभु ! तेरे लिए और पच्छिम है। जिस ओर मुख फेरो, उधर ही प्रभु है। निस्सन्देह परमात्मा विशाल और ज्ञानी है।"
"(मनुष्यों) को 'हज्ज़' के लिए बुला कि तेरे पास दूर से पैदल और ऊँटों पर चले आवें।"
"भगवान के लिए 'हज्ज़' और उम्रा पूरा करो, और यदि (किसी प्रकार) रोके गए, तो यथाशक्ति बलिदान (क़ुर्बानी) करो। जब तक कि बलि ठिकाने पर न पहुँच जाए, सिर की हजामत न बनवाएँ और जो तुममें से रोगी हो या जिसके सिर में पीड़ा हो, तो इसके बदले उपवास करें, या दान देवें, या बलिदान करें। जब तुम सकुशल हो तो जो कोई हज्ज़ के साथ 'उम्रा' चाहे यथाशक्ति बलि भेजे, और जो न पाये तो तीन दिन का उपवास हज्ज़ के समय में, और सात उपवास जब लौट कर जाये, यह पूरे दस (उपवास) उन लोगों के लिए हैं, जिनके घर 'काबा' के पास नहीं है।"
आवश्यक न होने से 'तवाफ़' (परिक्रमा) 'सफ़ा', 'मर्बा' पहाड़ियों के बीच ककड़ी फेंकते दौड़ना 'सई' कहते हैं।  इसलिए उन विधियों के बारे में लिखना संभव नहीं है।

इतिहाकार द्यौद्रस् सलस्
सम्‍पूर्ण विश्‍व क्‍या भारत के लोग ही यह कटु सत्‍य स्‍वीकार नही कर सकते कि इस्लाम ने सनातन की  आस्‍था माने जाने वाले असंख्‍य मंदिर तोड़े है और उनके स्‍थान पर उसी मंदिर के अवशेष से अपने उपासनास्थलों का निर्माण करवाया। ये गतिविधियां इतनी प्रंचडता के साथ की जाती थी कि तक्षशिला विश्वविद्यालय और सोमनाथ मंदिर विध्‍वंश किये गये, यह बहुत बाद की सत्य घटनाएं हैं । इस्लाम की नीव इस आधार पर रखी गई कि दूसरों की आस्था का अनादर करों और उनके ही  पवित्र स्थलों को खंडित कर वहाँ इस्लामी केंद्रों की स्थापना की जाय । इस कार्य में  बाधा डालने वाले जो लोग भी सामने आये उन लोगो को मौत के घाट उतार दिया जाये। भले ही वे लोग मुस्लिमो को परेशान न करते हो। मुहम्‍मद साहब और मुसलमानों के हमले से मक्‍का और मदीना के आस पास का पूरा इतिहास बदल दिया गया। इस्लाम एक तलवार से उपजा पंथ था है और रहेगा। 

गोवर्धन पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी
स्वामी जी के अनुसार मक्केशश्वर शिवलिंग के अलावा भी बहुत से ऐसे शिवालय रहे हैं जिनको इस्लाम के उदय के बाद कब्जा कर मस्जिद बना दिया गया। इनमे भारत की प्रमुख जाना मस्जिद भी शामिल है।  जमा मस्जिद को वह जम्बेश्वर महादेव शिवलिंग प्रमाणित करते हैं। स्वामी जी का कहना है कि धरती पर सनातन उपासना पद्धति इस्लाम या ईसाइयत के जन्म से बहुत पहले से विद्यमान रही है। जिन कबीलों से इस्लाम जैसे पंथ निकले उनके लिए जो पद्धति और उसे समय के लोगो के आस्था के केंद्र या ऐसी जगहें दिखीं वही वे काबिज होकर अपना प्रचार करने लगे। मक्केश्वर महादेव का उल्लेख तो हमारे कई पुराणों में भी प्रमुखता से किया गया है। इसमें कोई संशय ही नहीं कि जिसे इस्लाम का सबसे पवित्र स्थल बताया जा रहा है वह सनातन संस्कृति में ज्योतिर्लिंग रहा है लेकिन आजकल उनके अधिपत्य में है।   

शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती
द्वारिका शारदा पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती भी कई  बार इस बात को कह चुके हैं कि मक्का में मक्केश्वर महादेव मंदिर है। मुहम्मद साहब भी शैव थे, इसलिए वे मक्केश्वर महादेव को मानते थे। एक बार वहां लोगों ने बुद्ध की मूर्ति लगा थी, वह इसके बहुत विरोधी थें। अरब में मुहम्मद पैगम्बर से पूर्व शिवलिंग को 'लात' कहा जाता था। मक्का के कावा में जिस काले पत्थर की उपासना की जाती रही है, भविष्य पुराण में उसका उल्लेख मक्केश्वर के रूप में हुआ है। इस्लाम के प्रसार से पहले इजराइल और अन्य यहूदियों द्वारा इसकी पूजा किए जाने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। इराक और सीरिया में सुबी नाम से एक जाति थी यही साबिईन है। इन साबिईन को अरब के लोग बहुदेववादी मानते थे। कहते हैं कि साबिईन अर्थात नूह की कौम। माना जाता है कि भारतीय मूल के लोग बहुत बड़ी संख्या में यमन में आबाद थे, जहां आज भी श्याम और हिन्द नामक किले मौजूद हैं। विद्वानों के अनुसार सऊदी अरब के मक्का में जो काबा है, वहां कभी प्राचीनकाल में 'मुक्तेश्वर' नामक एक शिवलिंग था जिसे बाद में 'मक्केश्‍वर' कहा जाने लगा।

काफिरों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध
अभी कुछ साल पहले तक मक्का के गेट पर साफ-साफ लिखा था कि काफिरों का अंदर जाना गैर-कानूनी है। कहा जा रहा है अब इस बोर्ड को उतार दिया गया है और लिख दिया है नॉन-मुस्लिम्स का अंदर जाना माना है। इसका मतलब है कि ईसाई, जैनी या बौद्ध धर्म को भी मानने वाले इसके अंदर नहीं जा सकते हैं।
मुसलमाने के पैगम्‍बर मुहम्‍मद एक ऐसे विध्‍वंसक गिरोह का नेतृत्‍व करते थे जो धन और वासना के पुजारी थे। मुहम्‍मद ने मदीना से मक्का के शांतिप्रिय मुर्तिपूजकों पर हमला किया और जबरजस्‍त नरसंंहार किया। मक्‍का का म‍दीना के अपना अगल अस्तितव था किन्‍तु मुहम्‍मद साहब के हमले के बाद मक्‍का मदीना को एक साथ जोड़कर देखा जाने लगा। जबकि मक्‍का के लोग जो कि शिव के उपासक माने जाते है। मुहम्‍मद की टोली ने मक्‍का में स्‍थापित कर वहां पे स्थापित की हुई 360 में से 359 मूर्तियाँ नष्ट कर दी और सिर्फ काला पत्थर सुरक्षित रखा जिसको आज भी मुस्‍लिमों द्वारा पूजा जाता है। उसके अलावा अल-उज्जा, अल-लात और मनात नाम की तीन देवियों के मंदिरों को नष्ट करने का आदेश भी महम्मद ने दिया और आज उन मंदिरों का नामो निशान नहीं है (हिशम इब्न अल-कलबी, 25-26)। इतिहास में यह किसी हिन्दू मंदिर पर सबसे पहला इस्लामिक आतंकवादी हमला था।उस काले पत्थर की तरफ आज भी मुस्लिम श्रद्धालु अपना शीश जुकाते है। किसी हिंदू पूजा के दौरान बिना सिला हुआ वस्त्र या धोती पहनते हैं, उसी तरह हज के दौरान भी बिना सिला हुआ सफेद सूती कपड़ा ही पहना जाता है। जिस प्रकार हिंदुओं की मान्यता होती है कि गंगा का पानी शुद्ध होता है ठीक उसी प्रकार मुस्लिम भी अबे जम-जम के पानी को पाक मानते हैं। जिस तरह हिंदू गंगा स्नान के बाद इसके पानी को भरकर अपने घर लाते हैं ठीक उसी प्रकार मुस्लिम भी मक्का के अबे जम-जम का पानी भर कर अपने घर ले जाते हैं। ये भी एक समानता है कि गंगा को मुस्लिम भी पाक मानते हैं और इसकी अराधना किसी न किसी रूप में जरूर करते हैं।

वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास
प्रख्‍यात प्रसिद्ध इतिहासकार स्व0 पी.एन.ओक ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास’ में समझाया है कि मक्का और उस इलाके में इस्लाम के आने से पहले से मूर्ति पूजा होती थी। हिंदू देवी-देवताओं के मंदिर थे, गहन रिसर्च के बाद उन्होंने यह भी दावा किया कि काबा में भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग है। पैगंबर मोहम्मद ने हमला कर मक्का की मूर्तियां तोड़ी थीं। यूनान और भारत में बहुतायत में मूर्ति पूजा की जाती रही है, पूर्व में इन दोनों ही देशों की सभ्यताओं का दूरस्थ इलाकों पर प्रभाव था। ऐसे में दोनों ही इलाकों के कुछ विद्वान काबा में मूर्ति पूजा होने का तर्क देते हैं। हज करने वाले लोग काबा के पूर्वी कोने पर जड़े हुए एक काले पत्थर के दर्शन को पवित्र मानते हैं जो कि हिन्‍दूओं का पवित्र शिवलिंग है। वास्‍तव में इस्लाम से पहले मिडिल-ईस्ट में पीगन जनजाति रहती थी और वह हिंदू रीति-रिवाज को ही मानती थी। पी एन ओक ने सिद्ध कर दिया है मक्केश्वर शिवलिंग ही हजे अस्वद है। मुसलमानों के सबसे बड़े तीर्थ मक्का मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहां काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था जो खंडित अवस्था में अब भी वहां है। हज के समय संगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर, अस्वद अर्थात अश्वेत यानी काला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं।


जमजम है पवित्र गंगा
एक प्रसिद्ध मान्‍यता के अनुसार काबा में भी “पवित्र गंगा” है जो महापंडित रावण के कारण वहां प्रवाहित हुईं थीं। रावण शिव भक्त था वह शिव के साथ गंगा और चन्द्रमा के माहात्म्य  को समझता था और यह जानता था कि कि क‍भी शिव को गंगा से अलग नही किया जा सकता। जहाँ भी शिव होंगे, पवित्र गंगा की अवधारणा निश्चित ही मौजूद होती है। काबा के पास भी एक पवित्र झरना पाया जाता है, इसका पानी भी पवित्र माना जाता है। इस्लामिक काल से पहले भी इसे पवित्र (आबे ज़म-ज़म) ही माना जाता था। रावण की तपस्‍या से प्रसन्‍न होकर भगवान शिव ने रावण  को एक शिवलिंग प्रदान किया जिसें लंका में स्‍थापित करने का कहा और बाद जब रावड़ आकाश मार्ग से लंका की ओर जाता है पर रास्ते में कुछ ऐसे हालत बनते हैं की रावण को शिवलिंग धरती पर रखना पड़ता है। वह दुबारा शिवलिंग को उठाने की कोशिश करता है पर खूब प्रयत्न करने पर भी लिंग उस स्थान से हिलता नहीं। वेंकटेश पण्डित के अनुसर यह स्थान वर्तमान में सऊदी अरब के मक्का नामक स्थान पर स्थित है।

इस बारे में वेंकटेश पण्डित के ग्रन्थ 'रामावतारचरित' के युद्धकांड प्रकरण में उपलब्ध एक बहुत अद्भुत प्रसंग 'मक्केश्वर लिंग' से संबंधित हैं, जो आम तौर पर अन्य रामायणों में नहीं मिलता है। वह प्रसंग काफी दिलचस्प है। शिव रावण द्वारा याचना करने पर उसे युद्ध में विजयी होने के लिए एक लिंग (मक्केश्वर महादेव) दे देते हैं और कहते हैं कि जा, यह तेरी रक्षा करेगा, मगर ले जाते समय इसे मार्ग में कहीं पर भी धरती पर नहीं रखना। रावण आकाशमार्ग से लंका की ओर जाता है पर रास्ते में कुछ ऐसे हालत बनते हैं की रावण को शिवलिंग धरती पर रखना पड़ता है। वह दुबारा शिवलिंग को उठाने की कोशिश करता है पर खूब प्रयत्न करने पर भी लिंग उस स्थान से हिलता नहीं। वेंकतेश पण्डित के अनुसर यह स्थान वर्तमान में सऊदी अरब के मक्का नामक स्थान पर स्थित है।
सऊदी अरब के पास ही यमन नामक राज्य भी है जहाँ श्री कृष्ण ने कालयवन नामक राक्षस का विनाश किया था। जिसका जिक्र श्रीमदभगवत पुराण में भी आता है। पहले राजा भोज ने मक्का में जाकर वहां स्थित प्रसिद्ध शिव लिंग मक्केश्वर महादेव का पूजन किया था, इसका वर्णन भविष्य-पुराण में निम्न प्रकार है :-

"नृपश्चैवमहादेवं मरुस्थल निवासिनं !
गंगाजलैश्च संस्नाप्य पंचगव्य समन्विते :
चंद्नादीभीराम्भ्यचर्य तुष्टाव मनसा हरम !
इतिश्रुत्वा स्वयं देव: शब्दमाह नृपाय तं!
गन्तव्यम भोज राजेन महाकालेश्वर स्थले !! "

संदर्भ
 क़ुरान 5:13:4
 क़ुरान 5:13:4,2:17:1, 2:17:3,2:17:4,2:14:3,20:4:2
 नियमित समय में काबा यात्रा करना और उसके अतिरिक्त अन्य समयों में वही 'उम्रा' है,2:24:8
जब इस्लाम नही था

जब इस्लाम नही था

जब इस्लाम नही था


संजय तिवारी
धरती पर जब इस्लाम नही था। अरब और मक्का तब भी थे यह तथ्य है। धरती के वे सभी हिस्से तब तब भी थे  जहां आज इस्लाम पसरा है। अब जानने की जरूरत इस बात की है कि जब यह मजहब अस्तित्व में नही था और आसमान से कोई वस्तु धरती पर नही आई थी तब धरती के उन हिस्सों में क्या हो रहा था और वहां कौन सी सभ्यता या संस्कृति स्थापित थी। यदि दुनिया के इतिहास को राम से ही देखना शुरू करें तो राम के हजारों साल बाद कृष्ण आते हैं। यह समय आधुनिक गणना के हिसाब से प्रमाणित रूप से 5300 साल पहले का होता है। कृष्ण के बाद महाबीर और बुद्ध का समय उनसे लगभग दो या ढाई हजार साल बाद का है। बुद्ध के पांच सौसाल बाद ईसामसीह एक उद्भव है और ईसा से भी 600 साल बाद आते हैं मोहम्मद। यानी इस्लाम। 
अब जानने का प्रयास कीजिये कि जब मोहम्मद धरती पर नही आये थे उनसे पहले धरती के अरब क्षेत्र में क्या होता था। वहां कौन लोग रहते थे। उनकी संस्कृति और सभ्यता क्या थी। इस प्रश्न का उत्तर देती है एक पुस्तक जिसका नाम है   सेअरुल आकुल । इस पुस्तक का प्रकाशन ईरान की सरकार ने कराया है और यह बिरला मेमोरियल लाइब्रेरी में उपलब्ध है। यह अलग बात है कि अशोक से युधिष्ठिर को नीति सिखाने वाली रोमिला थापर या एक गवर्नर द्वारा तथ्य प्रस्तुत करने पर मारपीट करने वाले इरफान हबीब जैसे कथित इतिहासकारों को ऐसी महत्व की पुस्तकों को पढ़ने की न फुरसत है और न ही दुनिया को वास्तविक इतिहास बता पाने की उनमें कूवत है। 
सेअरुल आकुल को पढ़िए। आंख खुल जाएगी। यह बता रही है कि जब इस्लाम नाम का कोई शब्द भी नही था उस समय भी मक्का था और मक्का के उस उपासना स्थल पर प्रतिदिन शिव काव्य का पारायण होता था। जिस काव्य का पारायण किया जाता था उस कविता को स्वर्ण पट पर अंकित भी किया जाता था। इन स्वर्ण पटो में एक पट्ट ऐसा भी मौजूद है जो मोहम्मद के परिवार के एक सज्जन द्वारा ही गया गया है। इतिहास में मक्केश्वर महादेव को देवो के देव के रूप में बाकायदा गाया गया है जिसके सभी वास्तविक प्राण आज भी उपस्थित हैं। 
अब यह विचार का विषय है कि मक्केश्वर महादेव जैसा शिवालय कब और कैसे इस्लाम का मक्का बन गया। आखिर किसने किया यह सब।
क्रमशः
कश्मीर की कहानी

कश्मीर की कहानी

कश्मीर की कहानी 
संजय तिवारी 
ऋषि  कश्यप की भूमि। ऋषि शांडिल्य की भूमि।कुमारिल की आचार्य परंपरा की भूमि। भगवान् शंकराचार्य की भूमि। राजतरंगिणी की रचनास्थली। महाराजा रणजीत सिनसह की कर्मभूमि। 5 अगस्त 2019 को सनातन ह्रदय सम्राट महानायक नरेंद्र दामोदर दास मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने भारत की सनसद के माध्यम से कश्मीर के इतिहास में जो नया अध्याय जोड़ा है उसके बाद यह प्रबल इच्छा जगी है कि नयी पीढ़ी को कश्मीर का वास्तविक इतिहास बताया जाना चाहिए। इसी क्रम में यह श्रंखला शुरू कर रहा हूँ। यह थोड़ा लंबा होगा ल्र्किन पढ़िए जरूर। जानिये कि कश्मीर के बिना सनातन और भारतीयता कितने अधूरे लगते हैं।  कश्मीर का अति  प्राचीन विस्तृत लिखित इतिहास है राजतरंगिणी। महँ रचनाकार कल्हण द्वारा इसे 12वीं शताब्दी ई. में लिखा गया था। तब तक यहां पूर्ण सनातन  राज्य  था। यह अशोक  के साम्राज्य का हिस्सा भी रहा। लगभग तीसरी शताब्दी में अशोक का शासन रहा था। अशोक के साथ ही  यहां बौद्ध धर्म का आगमन हुआ, जो आगे चलकर कुषाणों के अधीन समृध्द हुआ था। उज्जैन के महाराज विक्रमादित्य के अधीन छठी शताब्दी में एक बार फिर से पूर्ण सनातन  की वापसी हुई। उनके बाद महाराज ललितादित्य यहाँ के शासक हुए जिनका कार्य  काल 697 ई. से 738 ई. तक था। अवन्तिवर्मन ललितादित्य के  उत्तराधिकारी बने । उन्होंने  श्रीनगर के निकट अवंतिपुर बसाया। उसे ही अपनी राजधानी बनाया। जो एक समृद्ध क्षेत्र रहा। उसके खंडहर अवशेष आज भी शहर की कहानी कहते हैं। यहां महाभारत युग के गणपतयार और खीर भवानी मन्दिर आज भी मिलते हैं। गिलगिट में पाण्डुलिपियां हैं, जो प्राचीन पाली भाषा में हैं। उसमें बौद्ध लेख लिखे हैं। त्रिखा शास्त्र भी यहीं की देन है। यह कश्मीर में ही उत्पन्न हुआ। इसमें सहिष्णु दर्शन होते हैं। चौदहवीं शताब्दी में यहां मुसलमानो के आक्रमण हुआ और उसी समय से मुस्लिम शासन आरंभ हुआ। उसी काल में फारस से से सूफी इस्लाम का भी आगमन हुआ। यहां पर ऋषि परम्परा के बाद  त्रिखा शास्त्र और फिर सूफी इस्लाम उभर कर आता दिखता है ।

कश्मीर राज्य की उपलब्ध वंशावली इस प्रकार मिलती है :

प्रवरसेन
गोपतृ
मेघवाहन
प्रवरसेन २
विक्रमादित्य-कश्मीर
चन्द्रापीड
तारापीड
ललितादित्य
जयपीड
अवन्तिवर्मन—८५५/६-८८३
शंकरवर्मन राजा—८८३-९०२
गोपालवर्मन—९०२-९०४
सुगन्धा—९०४-९०६
पार्थ राजा- ९०६-९२१ + ९३१-९३५
चक्रवर्मन- ९३२-९३३ + ९३५-९३७
यशस्कर—९३९-९४८
संग्रामदेव—९४८-९४९
पर्वगुप्त—९४९-९५०
क्षेमगुप्त—९५०-९५८
अभिमन्यु राजा—९५८-९७२
नन्दिगुप्त—९७२-९७३
त्रिभुवन—९७३-९७५
भीमगुप्त—९७५-९८०
दिद्दा—९८०/१-१००३
संग्रामराज—१००३-१०२८
अनन्त राजा—१०२८-१०६३
कलश राजा—१०६३-१०८९
उत्कर्ष—१०८९
हर्ष देव—१०८९-११०१
उच्चल
सल्हण
सुस्सल
भिक्षाचर
जयसिँह
राजदेव—१२१६-१२४०
सहदेव कश्मीरी राजा—१३०५-१३२४
कोट रानी—१३२४-१३39
ज़ैनुल-आब्दीन—१४२०-१४७०

सन १५८९ में यहां मुगलों  का राज हुआ। यह अकबर का शासन काल था। मुगल साम्राज्य के विखंडन के बाद यहां पठानों का कब्जा हुआ। यह काल यहां का काला युग कहलाता है। फिर १८१४ में पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह द्वारा पठानों की पराजय हुई, व सिख साम्राज्य आया। अंग्रेजों द्वारा सिखों की पराजय १८४६ में हुई, जिसका परिणाम था लाहौर संधि। अंग्रेजों द्वारा महाराजा गुलाब सिंह को गद्दी दी गई जो कश्मीर का स्वतंत्र शासक बना। गिलगित एजेन्सी अंग्रेज राजनैतिक एजेन्टों के अधीन क्षेत्र रहा। कश्मीर क्षेत्र से गिलगित क्षेत्र को बाहर माना जाता था। अंग्रेजों द्वारा जम्मू और कश्मीर में पुन: एजेन्ट की नियुक्ति हुई। महाराजा गुलाब सिंह के सबसे बड़े पौत्र महाराजा हरि सिंह 1925 ई. में गद्दी पर बैठे, जिन्होंने 1947 ई. तक शासन किया।

क्रमशः 
सनातन की स्थापना का युद्ध-   दो

सनातन की स्थापना का युद्ध- दो

सनातन की स्थापना का युद्ध-   दो  
संजय तिवारी 
इस बार के चुनाव के बहाने दुनिया को पहली बार उस राजपरिवार की असलियत खुल कर देखने को मिल रही है। जिस नेहरू - गाँधी डायनेस्टी ने भारत की स्वाधीनता के बाद जिस तरह झूठ और फरेब के आधार पर ईसाईयों की चरणपादुका लेकर इस देश पर शासन किया है उसकी परतें पहली बार खुलनी शुरू हुई हैं।  ये लोग मोदी युग के उदय के बाद किस हद तक परेशान और बेचैन हैं उसका अंदाजा आप केवल कांग्रेस पार्टी के आज ही जारी किये गए घोषणापत्र से लगा सकते हैं। इसमें कहा गया है कि यदि देश में फिर से उनकी सरकार बनेगी तो वे राष्ट्र द्रोह जैसी धरा को संविधान से ही ख़त्म कर देंगे।  सेना को सीमावर्ती राज्यों में सुरक्षा के लिए जो विशेष अधिकार दिए गए हैं उसे समाप्त कर देंगे।  तात्पॉर्य - भारत तेरे टुकड़े होंगे - इंशा अल्ला - इंशा अल्ला।  जब इनकी सरकार आएगी तो पूरा देश आतंकवादियों के हवाले। आतंक फैलाने वालो पर कार्रवाई के सारे अधिकार संविधान से ख़त्म। 

यही असली चेहरा है।  यह साबित करता है कि भारत को ईसाई राज्य के रूप में जो काम करना रह गया बाकी था , वह अब खुल कर हो सकेगा। अभी तक यह सब चोरी छिपे हो रहा था।  डॉ  सुभ्रमण्यं स्वामी भले ही इस परिवार की कैथोलिक नागरिकता की बात कर रहे थे लेकिन देश की जनता को इस पर भरोसा नहीं हो रहा था।  नेहरू के खुद के खंडन और जाती को लेकर भ्रम था। आज भी ये लोग देश को भ्रमित कर रहे हैं।  उत्तेर भारत में ये रुद्राक्ष की माला और जनेऊ पहन लेते हैं।  दक्षिण में जाते ही क्रॉस धारण कर लेते है।  इनकी जाति  , इनके मजहब आदि को लेकर जिस भ्रम में देश था अब अब वह भ्रम काफी हद तक टूट रहा है। जिस तरह कांग्रेस ने आज अपने घोषणापत्र के जरिये इस चुनाव को केवल  हिन्दू विरोध और भारतीयता के विरोध के रूप में सामने रख दिया है उससे जाहिर हो रहा है कि यह चुनाव कही न कही हिंदुत्व और चर्च के बीच होने जा रहा है।  उधर उम्र अब्दुल्ला के बयान ने साबित कर दिया है की इस चुनाव का एक मोड़ हिंदुत्व एवं भारतीयता और इस्लाम तथा इस्लामी आतंकवाद के बीच भी है।
दरअसल इस बार इस कथित गांधी परिवार की पोल ही खुल गयी है। जनेऊ , रुद्राक्ष , तिलक आदि के ढकोसले अब नहीं चलने वाले।  देश यह भली प्रकार से जान गया है कि गाँधी टाइटिल के पीछे से कैथोलिक एजेंडा लेकर अभी तक राजनीति करने वाली कांग्रेस वास्तव में अब देश को तोड़ने का मन बना चुकी है। धरा ३७७ का हटाना भी इसी पार्टी का एजेंडा था जिसे उसने हासिल कर लिया। जे एन  यू , AMU , जामिया मिलिया आदि परिसरों में बैठे उनके पैरोकारों के लिए बेचैनी वाली बात है कि ये जो भी साजिश रच रहे हैं उसका खुलासा तुरंत होने लगा है। इनकी बेचैनी इस कदर बढ़ी है कि भारतीय सेना के बढे हौसले इनको रास नहीं आ रहे। इनकी बेचैनी इसलिए भी बढ़ गयी है क्योकि अब जनता इनसे सीधे सवाल कर रही है और दौड़ा भी रही है। 
आज जो घोषणापत्र कांग्रेस ने जारी किया है उसे देखने के बाद हर भारतवासी का खून खौल रहा है। राष्ट्र का अपमान।  राष्ट्र की सेना का अपमान।  अब भला इससे बड़ा नीच कर्म क्या होगा।  देश की आजादी का गलत इतिहास पढ़ाकर ६५ वर्षो तक देश को गुमराह नहीं कर सके तो अब आतंकवादियों के सहयोग से सत्ता पाना चाहते हैं। छिः ---- ये भारत माता के सपूत तो कदापि नहीं हो सकते। 
वंदे  मातरम 
क्रमशः 
सनातन की स्थापना का युद्ध-    एक

सनातन की स्थापना का युद्ध- एक

सनातन की स्थापना का युद्ध-    एक


संजय तिवारी
इस बार भारत मे हो रहे लोकसभा का चुनाव कोई सामान्य चुनाव भर नही है। यह वस्तुतः सभ्यताओ के संघर्ष का वह युद्ध है जिसमे सनातन हिंदुत्व की वैश्विक स्थापना  होने वाली है। यह भारत की सनातन संस्कृति की स्थापना का संघर्ष है जिसमे दुनिया एक त्रिभुज का आकार लेने वाली है। अभी तक यह धरती ईसाइयत और इस्लाम के वर्चस्व की जंग में चोटिल और लहूलुहान होती रही है। पहली बार विश्व को शांति प्रदाता भारतीय सनातन संस्कृति दिखी है और दुनिया की निगाहें अंततः इसी पर आकर टिक गई हैं। इस चुनाव की इस वैश्विक रूपरेखा को दुनिया ने उसी समय समझ लिया था जब भारत का प्रधान मंत्री विश्व के शक्तिशाली राष्ट्रों से लगायत दर्जनों देशो में अपनी जनसभाओं के माध्यम से यह संदेश देना शुरू कर दिया था कि संबंधित देश की धरती पर भी भारतीय सनातन की उपस्थिति है और उसे नजरअंदाज नही किया जा सकता। विश्व के इतिहास में यह पहली बार हो रहा था कि एक अन्य देश का प्रधानमंत्री किसी अन्य देश मे जनसभाएं कर रहा था। भारत समेत विश्व के कथित बुद्धिजीवियों को यह बात उसी समय समझ मे क्यो नही आई, यह ताज्जुब की बात है।

भला कोई प्रधानमंत्री किसी दूसरे देश के जनसभा क्यो करेगा । वह से उसको चुनाव तो लड़ना नही है। लेकिन ऐसा हुआ । भारत के प्रधानमंत्री की उन जन सभाओं की भाषा पर जिन्होंने गौर किया होगा उनको अंदाजा होगा कि आखिर जनसभा का उद्देश्य तो होगा। यदि भारत के संदर्भ में सोचा जाय तो यहां के प्रधानमंत्री ने उसी समय इस चुनाव की बुनियाद मजबूत कर दी थी।
आलोचक लोग प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं को लेकर काफी टिप्पणियां करते हैं लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि भारतीय सनातन संस्कृति और सभ्यता के प्रसार का ही यह प्रतिफल रहा कि इस बार के प्रयाग कुम्भ में 72 देशो ने अपने ध्वज स्थापित किये। जो भी विदेशी कुम्भ तक आया वह हिंदुत्व और सनातन से अभिभूत होकर लौटा। हिदुत्व के वैश्विक विस्तार की यह नई शुरुआत जैसी बात लगी। आज जब भारत के लोकसभा के चुनाव हो रहे हैं तो ऐसा पहली बार हो रहा है कि गैर भाजपाई पार्टियों के नेताओ के सिर से वे जालीदार टोपियां गायब हैं। प्रियंका वाड्रा को मजबूरी में रुद्राक्ष धारण करना पड़ रहा है। अचानक सभी मंदिरों से मुखातिब होने लगे हैं । चुनाव जितना नजदीक आ रहा है प्रधानमंत्री पर तरह तरह के शाब्दिक हमले किये जा रहे है। ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि भारत मे चुनावी जंग में शामिल बहुतेरे लोगो को इस जंग की वैश्विक महत्ता का अंदाजा तक नही है। उनको यह पता ही नही है कि विगत चार वर्ष और कुछ महीनों के भीतर हमारे प्रधानमंत्री ने दुनिया की जंग रत सभ्यताओ को ऐसी चुनौती में डाल दिया है जहां से मिशनरियों और जेहादियों को स्वयं के अस्तित्व का खतरा नजर आने लगा है । ईसाइयत और इस्लाम की जंग में हिंदुत्व की सनातन परंपरा ने त्रिभुज के कर्ण की जगह ले ली है।
वंदे मातरं
क्रमशः
अटल दर्शन पर चलेगा नया भारत

अटल दर्शन पर चलेगा नया भारत

अटल दर्शन पर चलेगा नया भारत 


संजय तिवारी 
भारतवर्ष के लिए एक नए युग की शुरुआत हो चुकी है। देश  अभी तक गांधीवाद , नेहरूवाद,  इंदिरावाद,  कांग्रेसवाद,  समाजवाद , सेक्युलरवाद ,आदि वादों और दर्शन को लेकर चल रहा था। गांधी की बात सभी करते रहे लेकिन उसे पर चला कोई नहीं क्योकि कही कही गांधी को भी पूर्ण स्वीकारोक्ति नहीं मिल पायी।  यह अलग बात है कि गांधी को विश्वपटल पार अहिंसा के दर्शन के लिए स्थापना दी गयी। दुनिया ने उनको स्वीकार किया। गांधी के बड़े बड़े अनुयायी भी हुए लेकिन गांधी दर्शन भारत का समग्र दर्शन नहीं बन सका। अब यहाँ महादेश एक ऐसे व्यक्ति के विचारो में डूब -उतरा रहा है जिनका नाम है अटल बिहारी बाजपेयी। नया भारत अब अटल दर्शन को ही अंगीकार कर अपना नया सफर तय करने जा रहा है।

अटल दर्शन पर आगे बढ़ रहे नए भारत की इस यात्रा का आरम्भ हो चुका है। अटल बिहारी बाजपेयी की दैहिक अनुपस्थिति में अब कुंके शब्द मन्त्र की भूमिका में आ गए हैं। भारतीय लोकतंत्र के लिए अब अन्य सभी दर्शनों से ज्यादा अटल दर्शन ही प्रासंगिक बन रहा है। अटल जी की सनातन के प्रति विशवास , सत्य पर भरोसा , राजधर्म की स्पष्ट परिभाषा और लोकतांत्रिक परंपरा में मतभेद और मनभेद के बावजूद  राजनैतिक मित्र भाव  की उनके नीति ही इस देश और यहाँ के लोकतंत्र को आगे ली जा सकती है। वैसे भी देश की नयी पीढ़ी के सामने एक पथविचलन जैसा दृश्य उभर कर आ गया था। अटल जी के निधन के बाद उनके लिए उपजी सहानुभूति और उनके अजातशत्रु व्यक्तित्व के सामने आते ही नयी पीढ़ी को जैसे वह आदर्श मिल गया जिसकी तलाश वह अन्य व्यक्तियों में कर रही थी।

अटल जी पिछले नौ वर्षो से अचर्चित थे। कही उनका नाम नहीं था। इन नौ वर्षो में जिसने जन्म लिया वह तो उन्हें नहीं ही जान रहा था , उनके सक्रीय जीवन में नौ वर्ष पूर्व जन्मलिये बच्चो को भी उनकी याद धुंधली ही रही होगी। यह समग्र पीढ़ी कुछ और ही तरह से अपने आइकॉन तलाश रही थी। अटल जी के निधन के बाद से देश में जिस तरह से अटल चर्चा और अटलनीति पर विमर्श शुरू हुआ है उसने नयी पीढ़ी को इस तरफ बहुत ही सलीके से ध्यान खींचा है। इस चर्चा के साथ ही अटल जी के भाषण सर्च किये जा रहे हैं और खूब सुने जा रहे हैं। आज जिस रूप में अटल जी की चर्चा हो रही है उससे नया भारत बहुत ही प्रभावित है।

नए भारत के वास्तविक निर्माता के रूप में अटल जी याद किये जा रहे हैं।  यह सही भी है।  शेरशाह सूरी और ग्रांडट्रंक के बाद अटल जी तीसरे शासक हैं जिन्होंने इस महादेश के भूतल परिवहन के लिए क्रांतिकारी कार्य किया।  उनकी दूरदृष्टि से ही आज देश में फोरलेन , सिक्सलेन की सड़के और एक्सप्रेसवे जैसे राजमार्ग हमें उपलब्ध हो सके हैं। भारतीय राजनीति में उनके 70 वर्षो का मूल्यांकन बहुत आसानी से नहीं किया जा सकता। उसके लिए वर्षो के शोध की आवश्यकता है। अटल जी का कवि , अटल जी का पत्रकार , अटल जी का राजनेता , अटल जी का प्रतिपक्ष और फिर पक्ष , अटल जी का शासक , अटल जी लोकमानव , अटल जी का महामानव , अटल जी का सनातन , अटल जी का हिंदुत्व , अटल जी का भारतीयपन , अटल जी का मनुष्य। इन सभी पर केवल कुछ शब्दों में कैसे लिखा जाय।

अटल जी एक युग हैं।  उनके युग में जिन्होंने जी कर देखा उन्होंने उन्हें जाना। अब जब कि दुनिया बदल रही है और भारत विश्वशक्ति बन कर उभर रहा है ,ऐसे में अटल जी के दर्शन और सिद्धांत ही हैं जो भारत की प्रगति को अक्षुण्य बनाये रखेंगे। अटल जी की नीतियों पर चलने वाला भारत ही महान होगा।  अटल जी के दर्शन को मानने वाला भारत ही विश्व विजय के पथ पर अग्रसर होगा। अटल दर्शन लेकर ही भारत बनेगा विश्वगुरु।  
रेशम के सूत्र में रक्षा की शक्ति

रेशम के सूत्र में रक्षा की शक्ति

रेशम के सूत्र में रक्षा की शक्ति 

संजय तिवारी 
भारत की सनातन परंपरा पर्व प्रधान है। ये पर्व सृष्टि के क्रमिक विकास के वार्षिक पड़ाव हैं। प्रति वर्ष आकर ये जीवन के विकासक्रम को संस्कारित करते हैं और आगे अपने धर्म  के निर्वहन की प्रेरणा भी देते हैं। यह धर्म कोई मजहब या पंथ नहीं होता बल्कि मानव का होता है। इसमें राजा का धर्म , प्रजा का धर्म , पिता का धर्म , पुत्र का धर्म , भगिनी का धर्म , भाई का धर्म , पति का धर्म , पत्नी का धर्म , बडो का धर्म , छोटो का धर्म आदि निहित हैं। यह जीवन की संस्कृति का निर्माण करते हैं। इन पर्वो में से ही एक महत्वपूर्ण पर्व है रक्षा सूत्र बंधन। वैसे तो यह अत्यंत पौराणिक प्रचलन का पर्व है लेकिन आजकल इसे भाई बहन के पवित्र रिश्ते के साथ जोड़ कर देखा जाता है। यह पर्व हर साल आता है और अब इसे केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशो में भाई बहन के त्यौहार के रूप में मनाया जाने लगा है। आइये एक दृष्टि डालते हैं इसके प्राचीन स्वरुप से लेकर ऐतिहासिक और वर्त्तमान स्वरुप पर। 


रक्षा सूत्र बन्धन
यह पर्व प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है। सभी धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बाँधते समय कर्मकाण्डी पण्डित या आचार्य संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।


रक्षासूत्र
प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियाँ और महिलाएँ पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी, चावल, दीपक, मिठाई और कुछ पैसे भी होते हैं। लड़के और पुरुष तैयार होकर टीका करवाने के लिये पूजा या किसी उपयुक्त स्थान पर बैठते हैं। पहले अभीष्ट देवता की पूजा की जाती है, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीका करके चावल को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनीकलाई पर राखी बाँधी जाती है और पैसों से न्यौछावर करके उन्हें गरीबों में बाँट दिया जाता है। भारत के अनेक प्रान्तों में भाई के कान के ऊपर भोजली या भुजरियाँ लगाने की प्रथा भी है। भाई बहन को उपहार या धन देता है। इस प्रकार रक्षाबन्धन के अनुष्ठान को पूरा करने के बाद ही भोजन किया जाता है। प्रत्येक पर्व की तरह उपहारों और खाने-पीने के विशेष पकवानों का महत्त्व रक्षाबन्धन में भी होता है। आमतौर पर दोपहर का भोजन महत्त्वपूर्ण होता है और रक्षाबन्धन का अनुष्ठान पूरा होने तक बहनों द्वारा व्रत रखने की भी परम्परा है। पुरोहित तथा आचार्य सुबह-सुबह यजमानों के घर पहुँचकर उन्हें राखी बाँधते हैं और बदले में धन, वस्त्र और भोजन आदि प्राप्त करते हैं। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्त्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फ़िल्में भी इससे अछूते नहीं हैं।


पौराणिक प्रसंग
रक्षा सूत्र बंधन यानी  का त्योहार कब शुरू हुआ , इसकी कोई सटीक जानकारी नहीं मिलती लेकिन यह पर्व है अत्यंत प्राचीन ,क्योकि इसकी प्राचीनता के प्रमाण उपलब्ध हैं।  भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है। भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए निम्नलिखित स्वस्तिवाचन किया (यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र है)-

येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥
(श्रीशुक्लयजुर्वेदीय, माध्यन्दिन वाजसनेयिनां, ब्रम्हकर्म समुच्चय पृष्ठ -295 )  
इस श्लोक का हिन्दी भावार्थ है- 
"जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)"  

स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकनाचूर कर देने के कारण यह त्योहार बलेव नाम से भी प्रसिद्ध है।


 भागवतपुराण
 भागवतपुराण में उल्लेख है कि एक बार बाली रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान बलि को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।
‘रक्षिष्ये सर्वतोहं त्वां सानुगं सपरिच्छिदम्।
सदा सन्निहितं वीरं तत्र मां दृक्ष्यते भवान्॥’
(श्रीमद्भागवत,स्कन्ध 8,अध्याय 23,श्लोक33) 
 
विष्णु पुराण
विष्णु पुराण में एक और उल्लेख मिलता है जब विष्णु ने हयग्रीव अवतार के रूप में पृथ्वी पर विचरण किया। उस दिन भी श्रावण महीने की पूर्णिमा ही थी। विष्णु इस रूप में ब्रह्मा के लिए पुनः वेदों को उपलब्ध कराया  था। हयग्रीव अवतार को विद्या और बुद्धि प्रदाता माना जाता है। उनके स्वागत में ब्रह्मा ने विष्णु का रक्षा सूत्र बाँध कर अभिनन्दन किया था।  द्वापर युग में महाभारत काल में भी राखी का उल्लेख मिलता है। ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठर ने श्री कृष्ण से युद्ध भूमि में पूछा कि हम संख्या और शक्ति बल में कम होते हुए भी किस प्रकार विजय प्राप्त कर सकते हैं ? तब श्री कृष्ण ने ‘हनुमान मंत्र’ के साथ समस्त सैनिकों को परस्पर रक्षा सूत्र बाँधने का परामर्श दिया था।उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है, जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। यही नहीं अर्जुन के जिस रथ को श्री कृष्ण स्वयं हाँक रहे थे उसके ऊपर भी हनुमत ध्वजा फहरा रही थी।

महाभारत 
 महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूँ तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बाँधने के कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।

ऐतिहासिक प्रसंग
महारानी कर्मवती ने हुमायूँ को भेजी थी राखी 
राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएँ उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा। राखी के साथ एक और प्रसिद्ध कहानी जुड़ी हुई है। कहते हैं, मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी लड़ऩे में असमर्थ थी अत: उसने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती व उसके राज्य की रक्षा की। 

सिकंदर की पत्नी ने पुरूवास से लिया वचन 
एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के हिन्दू शत्रु पुरूवास को राखी बाँधकर अपना मुँहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकन्दर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बँधी राखी और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकन्दर को जीवन-दान दिया।

साहित्यिक प्रसंग
अनेक साहित्यिक ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें रक्षाबन्धन के पर्व का विस्तृत वर्णन मिलता है। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है हरिकृष्ण प्रेमी का ऐतिहासिक नाटक रक्षाबन्धन जिसका 1991 में 18वाँ संस्करण प्रकाशित हो चुका है। मराठी में शिन्दे साम्राज्य के विषय में लिखते हुए रामराव सुभानराव बर्गे ने भी एक नाटक की रचना की जिसका शीर्षक है राखी ऊर्फ रक्षाबन्धन।

जैन साहित्य में रक्षाबंधन
इस दिन बिष्णुकुमार नामक मुनिराज ने ७०० जैन मुनियों की रक्षा की थी।जैन मतानुसार इसी कारण रक्षाबंधन पर्व हम सब मनाने लगे व हमें इस दिन देश व धर्म की रक्षा का संकल्प लेना चाहिए।
 
 
फिल्मो में रक्षाबंधन 
पचास और साठ के दशक में रक्षाबन्धन हिंदी फ़िल्मों का लोकप्रिय विषय बना रहा। ना सिर्फ़ 'राखी' नाम से बल्कि 'रक्षाबन्धन' नाम से भी कई फ़िल्में बनायीं गयीं। 'राखी' नाम से दो बार फ़िल्‍म बनी, एक बार सन 1949 में, दूसरी बार सन 1962 में, सन 62 में आई फ़िल्‍म को ए. भीमसिंह ने बनाया था, कलाकार थे अशोक कुमार, वहीदा रहमान, प्रदीप कुमार और अमिता। इस फ़िल्‍म में राजेंद्र कृष्‍ण ने शीर्षक गीत लिखा था- "राखी धागों का त्‍यौहार"। सन 1972 में एस.एम.सागर ने फ़िल्‍म बनायी थी 'राखी और हथकड़ी' इसमें आर.डी.बर्मन का संगीत था। सन 1976 में राधाकान्त शर्मा ने फ़िल्‍म बनाई 'राखी और राइफल'। दारा सिंह के अभिनय वाली यह एक मसाला फ़िल्‍म थी। इसी तरह से सन 1976 में ही शान्तिलाल सोनी ने सचिन और सारिका को लेकर एक फ़िल्‍म 'रक्षाबन्धन' नाम की भी बनायी थी।

स्वतन्त्रता संग्राम में रक्षा बन्धन पर्व की भूमिका
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिये भी इस पर्व का सहारा लिया गया। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबन्धन त्यौहार को बंगालनिवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया। 1905 में उनकी प्रसिद्ध कविता "मातृभूमि वन्दना" का प्रकाशन हुआ जिसमें वे लिखते हैं-
"हे प्रभु! मेरे बंगदेश की धरती, नदियाँ, वायु, फूल - सब पावन हों;
है प्रभु! मेरे बंगदेश के, प्रत्येक भाई बहन के उर अन्तःस्थल, अविछन्न, अविभक्त एवं एक हों।"
(बांग्ला से हिन्दी अनुवाद)

सन् 1905 में लॉर्ड कर्ज़न ने बंग भंग करके वन्दे मातरम् के आन्दोलन से भड़की एक छोटी सी चिंगारी को शोलों में बदल दिया। 16 अक्टूबर 1905 को बंग भंग की नियत घोषणा के दिन रक्षा बन्धन की योजना साकार हुई और लोगबाग गंगा स्नान करके सड़कों पर यह कहते हुए उतर आये-

सप्त कोटि लोकेर करुण क्रन्दन,
 सुनेना सुनिल कर्ज़न दुर्जन;
ताइ निते प्रतिशोध मनेर मतन करिल,
 आमि स्वजने राखी बन्धन।


ब्राह्मण एवं क्षेत्रीय समुदाय में रक्षा बन्धन  
नेपाल के पहाड़ी इलाकों में ब्राह्मण एवं क्षेत्रीय समुदाय में रक्षा बन्धन गुरू और भागिनेय के हाथ से बाँधा जाता है। लेकिन दक्षिण सीमा में रहने वाले भारतीय मूल के नेपाली भारतीयों की तरह बहन से राखी बँधवाते हैं। इस दिन बहनें अपने भाई के दायें हाथ पर राखी बाँधकर उसके माथे पर तिलक करती हैं और उसकी दीर्घ आयु की कामना करती हैं। बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है। ऐसा माना जाता है कि राखी के रंगबिरंगे धागे भाई-बहन के प्यार के बन्धन को मज़बूत करते है। भाई बहन एक दूसरे को मिठाई खिलाते हैं और सुख-दुख में साथ रहने का विश्वास दिलाते हैं। यह एक ऐसा पावन पर्व है जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को पूरा आदर और सम्मान देता है।

भावनात्मक रिश्तों में रक्षाबंधन 
सगे भाई बहन के अतिरिक्त अनेक भावनात्मक रिश्ते भी इस पर्व से बँधे होते हैं जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से परे हैं। रक्षाबन्धन का पर्व भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री के निवास पर भी मनाया जाता है। जहाँ छोटे छोटे बच्चे जाकर उन्हें राखी बाँधते हैं। रक्षाबन्धन आत्मीयता और स्नेह के बन्धन से रिश्तों को मज़बूती प्रदान करने का पर्व है। यही कारण है कि इस अवसर पर न केवल बहन भाई को ही अपितु अन्य सम्बन्धों में भी रक्षा (या राखी) बाँधने का प्रचलन है।

गुरु - शिष्य के बीच रक्षा बंधन 
गुरु शिष्य को रक्षासूत्र बाँधता है तो शिष्य गुरु को। भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षासूत्र बाँधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बाँधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी सफल हो। इसी परम्परा के अनुरूप आज भी किसी धार्मिक विधि विधान से पूर्व पुरोहित यजमान को रक्षासूत्र बाँधता है और यजमान पुरोहित को। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिये परस्पर एक दूसरे को अपने बन्धन में बाँधते हैं।

राजस्थान में चूड़ाराखीराजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बाँधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुँदना लगा होता है। यह केवल भगवान को ही बाँधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है। जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर, मिट्टीऔर भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्त्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट (पूजास्थल) बनाकर उनकी मन्त्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनायी जाती है। राखी को कच्चे दूध से अभिमन्त्रित करते हैं और इसके बाद ही भोजन करने का प्रावधान है।

उत्तरांचल में श्रावणी  
उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं।

हिमानी शिवलिंग  
अमरनाथ की अतिविख्यात धार्मिक यात्रा गुरु पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर रक्षाबन्धन के दिन सम्पूर्ण होती है। कहते हैं इसी दिन यहाँ का हिमानी शिवलिंग भी अपने पूर्ण आकार को प्राप्त होता है। इस उपलक्ष्य में इस दिन अमरनाथ गुफा में प्रत्येक वर्ष मेले का आयोजन भी होता है।

नारियल पूर्णिमा   
महाराष्ट्र राज्य में यह त्योहार नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से विख्यात है। इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं।इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिये नारियल अर्पित करने की परम्परा भी है। यही कारण है कि इस एक दिन के लिये मुंबई के समुद्र तट नारियल के फलों से भर जाते हैं।
अवनि अवित्तम  
तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिये यह दिन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्पण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। गये वर्ष के पुराने पापों को पुराने यज्ञोपवीत की भाँति त्याग देने और स्वच्छ नवीन यज्ञोपवीत की भाँति नया जीवन प्रारम्भ करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। इस दिन यजुर्वेदीय ब्राह्मण 6 महीनों के लिये वेद का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं। इस पर्व का एक नाम उपक्रमण भी है जिसका अर्थ है- नयी शुरुआत। व्रज में हरियाली तीज (श्रावण शुक्ल तृतीया) से श्रावणी पूर्णिमा तक समस्त मन्दिरों एवं घरों में ठाकुर झूले में विराजमान होते हैं। रक्षाबन्धन वाले दिन झूलन-दर्शन समाप्त होते हैं।

उत्तर प्रदेश 
श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षा बंधन का पर्व मनाया जाता है। रक्षा बंधन के अवसर पर बहिन अपना सम्पूर्ण प्यार रक्षा (राखी ) के रूप में अपने भाई की कलाई पर बांध कर उड़ेल देती है। भाई इस अवसर पर कुछ उपहार देकर भविष्य में संकट के समय सहायता देने का बचन देता है।

एकसूत्रता का सांस्कृतिक उपाय   
रक्षाबन्धन पर्व सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता या एकसूत्रता का सांस्कृतिक उपाय रहा है। विवाह के बाद बहन पराये घर में चली जाती है। इस बहाने प्रतिवर्ष अपने सगे ही नहीं अपितु दूरदराज के रिश्तों के भाइयों तक को उनके घर जाकर राखी बाँधती है और इस प्रकार अपने रिश्तों का नवीनीकरण करती रहती है। दो परिवारों का और कुलों का पारस्परिक योग (मिलन) होता है। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच भी एकसूत्रता के रूप में इस पर्व का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार जो कड़ी टूट गयी है उसे फिर से जागृत किया जा सकता है।

विशेष पकवान  
रक्षाबन्धन के अवसर पर कुछ विशेष पकवान भी बनाये जाते हैं जैसे घेवर, शकरपारे, नमकपारे और घुघनी। घेवर सावन का विशेष मिष्ठान्न है यह केवल हलवाई ही बनाते हैं जबकि शकरपारे और नमकपारे आमतौर पर घर में ही बनाये जाते हैं। घुघनी बनाने के लिये काले चने को उबालकर चटपटा छौंका जाता है। इसको पूरी और दही के साथ खाते हैं। हलवा और खीर भी इस पर्व के लोकप्रिय पकवान हैं।

सरकारी प्रबन्ध
भारत सरकार के डाक-तार विभाग द्वारा इस अवसर पर हर साल विशेष प्रबंध किये जाते हैं ताकि  पर राखी सही जगह पहुंच सके।  यह सुविधा रक्षाबन्धन तक ही उपलब्ध रहती है। रक्षाबन्धन के अवसर पर बरसात के मौसम का ध्यान रखते हुए डाक-तार विभाग ने  बारिश से ख़राब न होने वाले वाटरप्रूफ लिफाफे भी उपलब्ध कराये हैं। ये लिफाफे अन्य लिफाफों से भिन्न हैं। इसका आकार और डिजाइन भी अलग है जिसके कारण राखी इसमें ज्यादा सुरक्षित रहती है। डाक-तार विभाग पर रक्षाबन्धन के अवसर पर 20 प्रतिशत अधिक काम का बोझ पड़ता है। अतः राखी को सुरक्षित और तेजी से पहुँचाने के लिए विशेष उपाय किये जाते हैं और काम के हिसाब से इसमें सेवानिवृत्त डाककर्मियों की सेवाएँ भी ली जाती है। कुछ बड़े शहरों के बड़े डाकघरों में राखी के लिये अलग से बाक्स भी लगाये जाते हैं। इसके साथ ही चुनिन्दा डाकघरों में सम्पर्क करने वाले लोगों को राखी बेचने की भी इजाजत दी जाती है, ताकि लोग वहीं से राखी खरीद कर निर्धारित स्थान को भेज सकें।

राखी और आधुनिक तकनीकी माध्यम
आधुनिक तकनीकी युग एवं सूचना सम्प्रेषण युग का प्रभाव राखी जैसे त्योहार पर भी पड़ा है। बहुत सारे भारतीय आजकल विदेश में रहते हैं एवं उनके परिवार वाले (भाई एवं बहन) अभी भी भारत या अन्य देशों में हैं। इण्टरनेट के आने के बाद कई सारी ई-कॉमर्स साइट खुल गयी हैं जो ऑनलाइन आर्डर लेकर राखी दिये गये पते पर पहुँचाती है। इसके अतिरिक्त भारत में  राखी के अवसर पर इस पर्व से सम्बन्धित एक एनीमेटेड सीडी भी आ गयी है जिसमें एक बहन द्वारा भाई को टीका करने व राखी बाँधने का चलचित्र है। यह सीडी राखी के अवसर पर अनेक बहनें दूर देश में रहने वाले अपने भाइयों को भेज सकती हैं। अब व्हटसप और फेसबुक पर वीडिओ कॉलिंग की सुविधा होने से दूर रह रहे भाइयों को बहाने ऑनलाइन राखी बाँध  देती हैं। 

 रक्षा बंधन 2018

26 अगस्त
रक्षाबंधन अनुष्ठान का समय- 05:59 से 17:25
अपराह्न मुहूर्त- 13:39 से 16:12
पूर्णिमा तिथि आरंभ – 15:16 (25 अगस्त)
पूर्णिमा तिथि समाप्त- 17:25 (26 अगस्त)

भद्रा समाप्त: सूर्योदय से पहले


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