अभिशप्त ब्रह्माण्डनायक


अभिशप्त ब्रह्माण्डनायक


संजय तिवारी 
वह अखिल ब्रह्माण्डनायक हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम हैं। अवतार हैं। साक्षात नारायण हैं। सर्वशक्तिमान हैं। त्रिपादविभूति के  अधीश्वर हैं। प्राचेतस के नायक हैं। तुलसी के आदर्श हैं। लोक के उत्तम पुरुष हैं। स़ृष्टि के अधिष्ठाता हैं। इतना सब के बाद भी लगता है, अभिशप्त हैं। लोक जीवन और लोक दृष्टि में कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। रामकथा सभी जानते हैं। राम के जीवन की हर घटना से लगभग यह जगत भी उतना ही वाकिफ है जितना उनके समय में रहा होगा। किसी न किसी रूप में वह विश्व के मर्यादा पुरूष हैं।
यह सब लिखने का और इसे स्मरण करने का कोई ऐसा कारण नहीं है। बरबस बहुत सी बातें याद आने लगती हैं इन बातों को कारण की तलाश होती है। इन कारणों को जानना जरूरी भी है और गैरजरूरी भी। वह जितने जगत के नायक हैं उतने ही जगत की किसी भी एक ईकाई के लिए भी। इसलिए भी उनकी उपस्थिति और स्थापना मानस में रहेगी ही। एक पुत्र के रूप में, एक पति के रूप में, एक राजा के रूप में, एक शिष्य के रूप में, एक शासक के रूप में, एक योद्धा के रूप में  और लोक में स्थापित और भी कई रूपों में उनकी उपस्थिति का मूल्यांकन होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। तब तक जब तक यह सृष्टि चलेगी।
जब से यह नवरात्र शुरू हुआ है तभी से एक बेचैनी सी है। इस बार फिर 25 मार्च को यह जगत उसी राम का जन्मदिवस मनाएगा। वहां भी मनाया जाएगा जहा उन्होंने जन्म लिया था। सनातन समाज फिर रामनवमी की पूजा करेगा।  व्रत होगा। आरती होगी। प्रसाद बाटेंगे। कीर्तन जाएंगे। सबकुछ जश्न की तरह ही होगा लेकिन बिचारे राम उसी अपनी अयोध्या के खंडहरों में ,तिरपाल के तम्बू में रहते हुए सबकुछ चुपचाप देखेंगे। अपनी सन्तानो के झूठे संकल्पों की परिणति भी देखेंगे। उनके भव्य प्रासाद भी , सिंहासनो की शौकत भी , सत्ताएं भी , निर्लज्ज अहंकार भी , छलिया भाव  भी , प्रपंची प्रभाव भी। 
यह राम की विवशता है। जब राज्य मिलना था उसी दिन से उनके विरूद्ध साजिशे शुरू हो गयीं थीं।  उससे पूर्व सब ठीक था। अपने पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे। सभी में ज्येष्ठ भ्राता थे। आनंद पूर्वक जीवन चल रहा था। विवाह हुआ। घर , परिवार और राज्य चल रहा था। लेकिन जब राज्य पाने की बारी आयी तभी से लीला शुरू हो गयी। बनवास मिला।  पिता ने प्राण त्याग दिए। पत्नी का अपहरण हो गया। सैकड़ो युद्ध करने पड़े। बड़ी मुश्किल से बनवास से लौटे तो राज्य की जिम्मेदारी आ गयी। राज्य मिलते ही लोक के प्रश्नो ने इतना आहत किया कि गर्भवती पत्नी को वन में छोड़ना पड़ा। जिस पत्नी के लिए सारा समुद्र लांघ कर लंका को भी विध्वंस किया था उसी पत्नी को इस विकत अवस्था में वन में छोड़ना पड़ा। राज्य और लोक के प्रश्नो का इसी में हल दिखा। 
उस अभिशप्त नायक की व्यथा यहीं नहीं रुकी। दो नन्हे पुत्रो से युद्ध की भी स्थिति आ गयी। वह तो भला हो सीता का , जिसने पुत्रो का पिता से परिचय करा दिया। उस दिन राम को रघुकुल की उस रीति पर शायद दुःख भी हुआ होगा और आक्रोश भी उपजा होगा - प्राण जाय पर वचन ना जाय। उन्हें भीतर से कैसा लगा होगा ? जब वह वन में गए थे तो पिता ने प्राण त्याग दिए थे।  लेकिन सीता के गर्भ में लव और कुश थे , उस सीता को उन्होंने लोक के प्रश्न पर वन में छोड़ दिया। जिस लोक के लिए उन्होंने यह सब किया , क्या वह लोक राम की पीड़ा समझ सका ?
 सीता के भी उलाहने रहे होंगे जब वह धरती में समां रही होंगी। क्या मिला इस नारी को ? विवाह के तत्काल बाद वन ? अपहरण ? यातना ? फिर लौटी भी तो पति ने वन में ही छोड़ दिया। ब्रह्मर्षि बाल्मीकि की कुटिया में पाली बच्चो को। 
आज भी वही अयोध्या है।  वही सरयू।  वही मिटटी।  वही हवा।  वही आकाश।  वही जल।  वही लोक।  वही भारत।  वही आर्यावर्त।  वही जम्बूदीप। वही कौशलपुरी। युग बीत चुके।  सदियाँ  बीत चुकीं। एगो के साथ सत्ताओ ने जन्म लिया।  मरी भी। सनातन का वही लोक अपने उसी मर्यादा पुरुषोत्तम की जीवन गाथा गाता  चला आ रहा है। बहुत ऐसे भी हुए जिन्होंने उसी जीवन गाथा को गाकर बहुत कुछ अर्जित किया। आज भी कर रहे हैं। बहुत से संत महात्मा भी आये। चले भी गए। श्रीरामजन्मभूमि के लिए चितसंकल्प लिए गए। लोग चक्रवर्ती बने। लेकिन अभिशप्त इस महानायक को किसी ने उसकी जन्मभूमि नहीं लौटाई।  जो जगत का अधीश्वर है उसके जन्म स्थल का निर्धारण भी अब लोक करना चाहता है। 
आखिर छले जाने का भी कोई अंत तो होगा ? पहले विचारधारा कमजोर थी। सरकार नहीं थी।  अब विचारधारा भी है और सरकार भी है।  पहले बहुमत नहीं था।  अब बहुमत भी है। केवल बहुमत ही नहीं बल्कि देश के बीस राज्यों में भी वही प्रचंड पथ है। पहले नायक सरीखे सम्राट नहीं थे।  अब सम्राट भी हैं और राष्ट्र नायक भी। जिस लोक के प्रश्न हल करते राम ने सीता तक को त्याग दिया था ,  लोक के उन्ही प्रश्नो पर आज के सत्ता पुरुष सिंहासन त्याग सकेंगे क्या ? आखिर किस मुँह से फिर लोक बोल सकेगा - जय श्रीराम। 

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