ज्ञान शाश्वत है
संजय तिवारी
ज्ञान बहुत ही व्यापक है। शब्द बहुत सीमित और छोटे हैं। इसलिए केवल शब्दों के माध्यम से ज्ञान की प्राप्ति असंभव है। ज्ञान के लिए तो बहुत व्यापक दृष्टि चाहिए। मन और बुद्धि की सतह से ऊपर उठना होगा। बुद्धि से ज्ञान नहीं जुड़ सकता। इसके लिए बुद्धि से ऊपर चेतना , मेधा ,प्रज्ञा और ऋतम्भरा तक की यात्रा चाहिए। यह कार्य सामान्य मनुष्य के लिए कठिन है। ज्ञान शाश्वत है। सभ्यता की परतें इसे धूमिल कर देती हैं। वस्तुतः सृष्टि रचने वाले ने सृष्टि की रचना के साथ ही ज्ञान का अक्षुण भण्डार भी दिया लेकिन जब तक इसे राजर्षि संरक्षण प्राप्त हुआ तब तक तो इसे लोक में प्रसारित होने का अवसर मिला। लेकिन राजर्षि से जब राज्य मुक्त होकर राजाओ के तब ज्ञान के ऊपर दूसरी परतें चढ़ती गयीं। यह हर युग में होता आया है। इसे एक सामान्य उदाहरण से समझा जा सकता है।
एक व्यक्ति खूब धन सम्पदा इकठ्ठा कर एक तिजोरी में रखता है। अपनी अंतिम यात्रा से पूर्व वह अपनी अगली पीढ़ी को बुलाकर तिजोरी की कुंजी देता है और फिर उसका निधन हो जाता है। उसके जाने के बाद जो वह कुंजी पाता है वह उस तिजोरी की खूब पूजा करना शुरू कर देता है क्योकि वह तिजोरी उसके पूर्वज की अनमोल धरोहर है। हर पीढ़ी अपनी अगली संतति को वह तिजोरी हस्तांतरित करते जाती है। अब तक 10 पीढ़ियां गुजर चुकीं हैं। यह 11वि पीढ़ी भी परम्परानुसार उस तिजोरी की खूब पूजा करती है। फूलमाला सब चढाती है। लेकिन इसने कभी यह जहमत नहीं उठायी कि तिजोरी के भीतर की स्थिति को देखा जाय। पहली ने इसलिए नहीं खोला क्योकि उसे तत्काल धन की जरुरत नहीं थी। दूसरी , तीसरी, चौथी , पांचवी , छठवीं , सातवीं , आठवीं , नौवीं , दसवीं तक आते आते इस परिवार की आर्थिक स्थिति क्रमशः बिगड़ती गयी। 11 वी पीढ़ी की हालत इतनी खराब हो चुकी थी कि वह रोज अपने पुरखो की उस तिजोरी की पूजा अर्चना करने भिक्षाटन के लिए निकला जाया करते। परिवार की दशा बहुत ही खराब हो चली थी।
यह वही परिवार था जिसके घर में मौजूद तिजोरी में अकूत दौलत भरी पड़ी थी लेकिन उसके लिए वह तिजोरी मात्रा पूजा की वस्तु थी। जिस व्यक्ति ने उस तिजोरी को भरा कर अगली पीढ़ी को सौपा था उसके बाद की किसी पीढ़ी ने उस तिजोरी को खोलकर देखने तक की जहमत नहीं उठायी। सब उसकी पूजा करने में लगे रहे।
आज यही हालत हमारे ज्ञान की है। भारतीय सनातन परंपरा के सभी ज्ञान शास्त्र हमारे लिए पूजा की वास्तु बन कर रह गए हैं। कभी इन ज्ञान शास्त्रों को खोल कर उन्हें पढ़ने की कोशिश नहीं की। पूजा अपने इन ग्रंथो की करते हैं और ज्ञान के लिए पश्चिम की दिशा में देखते हैं। वही से प्राप्त भिक्षाटन के आधार पर खुद को विकसित करने और ग्यानी साबित करने में लगे हैं। श्रीमद्भगवद्गीता जैसे ग्रंथो की पूजा तो बहुत करते हैं लेकिन कभी पैन पलट कर उसके भीतर जाने की कोशिश नहीं करते। ज्ञान का सागर प्रभु ने हमें दे रखा है लेकिन हम हैं की गड्ढो , तालाबों , पोखरों और सप्प्लाई के नल से ज्ञान पाना चाहते हैं।