वंशवाद का यह गणतंत्र



वंशवाद का यह गणतंत्र 

देश के हालात अजीब है। पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। सियासी घमासान की नयी नयी तस्वीरें रोज-रोज जनता के सामने आ रही हंै। ऐसे अजीबोगरीब राजनीतिक समीकरण बन बिगड़ रहे हैं जिनको देख कर आदमी चौक पडऩे की सीमा भी पार कर चुका है। जो दशकों तक एक दूसरे के दुश्मन थे वे आज गलबहिया किये घूम रहे हंै। जो दशकों तक किसी दल या विचारधारा में मर मिटने की कसमें खाते नहीं थकते थे वे आज कहीं और अपने ठौर की तलाश में हंै। केवल राजनीतिक ही नहीं बल्कि समाजार्थिक हालात तो और भी विचित्र अवस्था में दिख रहे हैं। इस दौर में जब देश अपने गणतंत्र के 67 वर्ष पूरे कर चुका है, हम कहां खड़े हंै, इसका विश्लेषण तो होना ही चाहिए। विश्लेषण तो इस बात का भी होना चाहिए कि क्या वास्तव में हम गणतंत्र की राह पर चल भी रहे हैं या अभी भी कोई भ्रम पाले हुए हैं। क्योंकि हर व्यवस्था के दोनों पहलू होते हैं, अच्छा भी और खराब भी। अच्छा क्या है यह तो बहुत मायने नहीं रखता, लेकिन जो खराब है वह कितनी गहराई में पहुंच गया है, यह तो देखना ही होगा। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हम खुद को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में अपनी कॉलर ऊं ची करके डंका पीटते हंै। हमारे इस लोकतंत्र के कुछ गंभीर रोग भी हैं जिनसे इसको निजात नहीं मिल रही। यह आंकलन तो होना ही चाहिए कि जिस मकसद से भारत को भारतीय गणराज्य यानी इंडियन रिपब्लिक बनाया गया था, वे मकसद पूरे हुए या नहीं? अगर नहीं तो क्यों? इस दृष्टि से यह आंकलन करने का सर्वोत्तम दिन है, कि आजादी या लोकतंत्र का लाभ किन-किन लोगों को सबसे ज्यादा मिला?
भारतीय राजनीति में परिवार वाद बहुत बड़ी बीमारी के रूप में सामने आया है। भारत की राजनीति की इस प्रवृत्ति को लेकर दुनिया में बहुत से शोध भी हो रहे हैं। किसी परिवार में पैदा होना कोई गुनाह नहीं है। इसके लिए किसी को दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि कोई कहां पैदा हो, यह प्रकृति तय करती है, लेकिन किसी को उसकी योग्यता और उसके परिश्रम से बहुत ज्यादा मिल जाना तो गंभीर दोष है और अगर किसी को किसी खास परिवार में पैदा होने के कारण उसकी योग्यता और उसके परिश्रम से ज्यादा मिला है तो यह बेशक गलत है, यह असामाजिक, असंवैधानिक और अनैतिक भी है। कोई नौसिखिया व्यक्ति इसीलिए मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बन जाए कि वह किसी खास आदमी का बेटा या उसके परिवार का है, इसे तो गलत कहा जाएगा। तब योग्यता या कॉम्पीटिशन का क्या मतलब रह गया? वंशवाद के नाम पर गांधी परिवार को सबसे ज्यादा कोसा जाता रहा है, जबकि यह सच है कि दूसरे दलों में परिवारवाद-मुलायम-लालू-पासवान-सिंधिया-बादल-ठाकरे-पवार-संगमा-करुणानिधि-ज्यादा में फैल गया है। बहरहाल, मुद्दा इंदिरा की हत्या के बाद राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के बाद ज्यादा मुखर हुआ और तब से गाहे-बगाहे चलता ही रहा है। 
देश की राजनीति में परिवारवाद को लेकर चाहे जितनी भी बात की जाए, लेकिन कोई दल इससे अछूता नहीं रहा। राजनीति में परिवारवाद ख़त्म होने की बजाय वटवृक्ष की तरह फैलता जा रहा है। यह कई दशक से कोई दूसरा नेतृत्व तैयार ही नहीं होने दे रहा है। यह भी देखने की बात है कि राजीव गांधी के बाद उनकी उत्तराधिकारी बनीं सोनिया गांधी अपने बाद जिस तरह से राहुल गांधी को स्थापित करने में लगी हैं उसका खामियाजा आज पूरी कांग्रेस पार्टी को भुगतना पड़ रहा है। भारतीय राजनीति में वंशवाद यानी परिवारवाद पर ब्रिटिश लेखक पैट्रिक फ्रेंच ने बहुत लंबे शोध के बाद एक किताब लिखी है, जो 2011 में प्रकाशित हुई और खासी चर्चित भी रही। मजेदार बात यह कि वंशवाद उससे भी आगे बढ़ चुका है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। पिछले चुनाव में 84 करोड़ लोग मतदाता थे। आबादी के हिसाब से दुनिया का हर छठा व्यक्ति भारतीय था, मगर हर 10 में से तीन सांसद एक ही परिवार से आते रहे हैं। पैट्रिक के अनुसार पिछली लोकसभा में 28.6 फीसदी सदस्य वंशानुगत थे, 6.4 फीसदी इंडस्ट्री या बिजनेस से सीधे आए थे और 9.6 फीसदी अन्य तरह के कनेक्शनों से लोकसभा में थे। केवल 46.8 फीसदी सदस्य ही वंशानुगत नहीं थे। पिछली लोकसभा में 30 साल से कम उम्र के सभी सदस्य परिवार के प्रतिनिधि थे, जबकि 40 साल तक के 65 फीसदी सदस्य वंशानुगत। अगर महिला की बात करें तो करीब 70 फीसदी महिला सदस्य राजनीतिक पारिवार की थीं। पैट्रिक फ्रेंच कहते हैं कि अगर संसद में 33 फीसदी रिजर्वेशन हो गया परिवार की भागीदारी और बढ़ जाएगी। अध्ययन बता रहे हैं कि विश्व के लोकतंत्रिक इतिहास में भारत ऐसा देश है, जहां परिवारवाद की जड़ें गहरी धंसी हुई हैं। आजादी के तुरंत बाद शुरू हुई वंशवाद की यह अलोकतांत्रिक परंपरा अपनी जड़ें दिनों-दिन गहरी करती जा रही हंै। राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ राज्य और स्थानीय स्तर पर इसकी जड़ें इतनी जम चुकी हैं कि देश का लोकतंत्र परिवारतंत्र नजर आने लगा है। इस परिवारतंत्र को कितना लोकतांत्रिक कहा जा सकता है, यह सवाल दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।
 प्राचीन और मध्यकाल के राजा और सुल्तानों की जगह पोलिटिकल फैमिलीज ने ले ली है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। पहले जैसे राजा का बेटा राज बनता था, वैसे है आज प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का बेटा (या बेटी) प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनता है। इसका साफ मतलब है कि इन दलों में नेतृत्व करने के लिए दूसरा नाम आना असंभव है। पैट्रिक फ्रेंच डाटाबेस के मुताबिक वंशानुगत लोकसभा सदस्य गैर-वंशानुगत सदस्य के मुकाबले औसतन 4.5 गुना अमीर हैं। अगर वंशानुगत सदस्यों में उन सदस्यों की संपत्ति देखी जाए जिनके एक से ज्यादा पारिवारिक कनेक्शन हैं, यानी हाइपर वंशानुगत सदस्य, तो पता चलता है कि हाइपर वंशानुगत सदस्य बाकी वंशानुगत सदस्यों के मुकाबले लगभग दोगुना संपत्ति वाले हैं। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से बात शुरू की जाय तो यहां के यादव परिवार का उदाहरण बहुत बड़ा हो जाता है। इस परिवार ने दक्षिण के करुणानिधि को भी पीछे धकेलते हुए राजनीतिक वर्चस्व कायम किया है। जिस मुलायम सिंह यादव की पूरी राजनीति केवल इंदिरा गांधी के परिवारवाद के खिलाफ रही उसी मुलायम सिंह के परिवार में 32 लालबत्तियों की कहानी अब सभी की जुबान पर रहती है। पिछले जुलाई महीने से इस परिवार में पार्टी पर कब्जे से लेकर पदों तक के लिए अब तक जारी वर्चस्व की जंग को दुनिया देख रही है। भारत के लोकतंत्र में सबसे पिछड़े राज्य यूपी में  यादव परिवार सबसे ज्यादा तरक्की की और तकरीबन हर सदस्य किसी न किसी पद पर है। मुलायम आजमगढ़ से लोकसभा में हैं, तो बहू डिंपल यादव कन्नौज से। बेटा अखिलेश यादव सूबे का सीएम है, तो भाई रामगोपाल यादव राज्यसभा में हैं। दूसरे भाई शिवपाल यादव राज्य में पीडब्ल्यूडी मंत्री हैं, तो दो भतीजे धर्मेंद्र यादव बदायूं और अक्षय यादव फिरोजाबाद से एमपी हैं। अब बड़े भाई का पोता तेज प्रताप यादव भी मैनपुरी से लोकसभा में पहुंच गया है। अखिलेश तो अब पिता के पद पर पार्टी में खुद ही काबिज हो चुके हंै। कहा जा  रहा है, यह राज्य की गरीब जनता का जनादेश है। इसी तरह केवल बेटे को उत्तराधिकारी मानने वाले चारा घोटाले में सजायाफ्ता लालूप्रसाद यादव के दोनों बेटे तेजस्वी और तेजस नीतीश कुमार के बिहार मंत्रिमंडल में मंत्री हैं। यह बिहार की जनता जनार्दन का फैसला है। बिहार ही नहीं, पंजाब का अब निवर्तमान होने जा रहे  कैबिनेट में भी वंशवाद को पुष्ट करने के लिए काफी माल  है। पंजाब यूनिवर्सिटी की एक शोधार्थी गुनरीत कौर की थीसीस बताती है कि बादल के पुत्र सुखबीर डिप्टी सीएम, भतीजे मनप्रीत वित्तमंत्री, दामाद आदेश सिंह कैरों (पूर्व सीएम कैरों के पौत्र) मंत्री, करीबी रिश्तेदार, जनमेजा सिंचाई मंत्री, सुखबीर के साले विक्रमाजीत मजीठिया मंत्री रहे हैं। प्रकाश बादल की पत्नी सुरिंदर कौर अकाली दल महिला शाखा की संरक्षक हैं। बहू हरसिमरत कौर केंद्र में मंत्री। इसी तरह कैप्टन अमरिंदर सिंह, सिमरनजीत सिंह मान की पत्नी और बेअंत सिंह के बाद सीएम हरचरण सिंह बरार की बहू आपस में बहन हैं।
इस समय भारतीय राजनीति में वही दृश्य दिख रहे हैं जैसे प्राचीनकाल में हिंदू और मध्यकाल में मुस्लिम शासक अपने राज्य के विस्तार के लिए दूसरी जाति और धर्म में शादियां करते थे, या दूसरे रिश्ते बनाते थे उसी तरह आज के राजनेता करते रहे हैं। परिवारिक सदस्य होने के नाते राजनीति में सफल होने के लिए संसाधन आसानी से मिल जाते हैं। आर्थिक संसाधनों के साथ-साथ वंशानुगत राजनीतिक नेटवर्क का फायदा भी मिलता है।
परिवार से होने के नाते क्षेत्र व समाज में पारिवारिक दबदबा, खानदानी और जातिगत समर्थन विरासत में मिलता है। इसके चलते राजनीति और सत्ता तक उनकी पहुंच आसानी से हो जाती है। इसके अलावा अनुशासन, वरिष्ठता और नियम-कायदे उन पर लागू नहीं होते हैं। लेकिन आम कार्यकर्ता पर सब कुछ लागू होता है और अगर वह सब अर्हताएं पूरी भी करें तब भी कोई खानदानी नेता सारे किए-धरे को गुडग़ोबर कर सकता है। कह सकते हैं कि लोकतंत्र के इस तमाशे में हर तरह के लोग हैं। परिवारवादी नेताओं ने राज्य में कैसा शासन किया। एक तस्वीर उसकी भी देखिए। सन् 1943 में ब्रिटिश सरकार ने हेल्थ सेवा के लिए सर जोसेफ भोरे की अध्यक्षता में समिति का गठन किया था, जिसने 1946 में रिपोर्ट दे दी थी। भोरे समिति ने कहा था, हेल्थ सर्विस उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है। पैसे के अभाव में किसी नागरिक को अच्छी स्वास्थ सेवा से वंचित नहीं किया जा सकता है। अंग्रेज सिफारिश को मानकर इलाज मुफ्त करने वाले थे, लेकिन उनके जाने के बाद आजाद भारत में उस रिपोर्ट को डस्टबिन में डाल दी गई। मतलब अपनी तथाकथित गुलाम जनता के लिए जितने चिंतित गोरे थे, उतनी अपनी सरकार नहीं रही हैं। सबसे अहम बात यह कि अंग्रेज जब देश को भारतीयों के हवाले कर रहे थे, तब देश पर एक पाई भी कर्ज़ नहीं है, आज हर भारतीय पर औसतन 45 हज़ार रुपये से ज़्यादा कर्ज़़ है। इसी तरह अंग्रेज़ों के समय भारतीय रुपया डॉलर के बराबर था, लेकिन आज एक डॉलर 64 रुपये के बराबर हो गया है। ऐसे हालात में ऐसे बहुत सारे लोग भी मिलेंगे, जो नि:संकोच कह देंगे कि इससे बेहतर को अंग्रेजों का शासन था।
ऐसा माना जाता  है कि अमेरिका में एक फ़ीसदी लोक शासन करते हैं। भारत में तो यह आधा या एक चौथाई फ़ीसदी नहीं है। लोकतंत्र के 66 साल में एक करोड़ या उससे ज़्यादा वार्षिक आमदनी वाले केवल 42,800 (बयालिस हज़ार आठ सौ) लोग हैं, जो कुल आबादी का 0.00354 फ़ीसदी है। यही लोग लोकतंत्र के लाभार्थी रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि भारत में लोकतंत्र 66 साल के सफऱ के दौरान इसे परिवारतंत्र में बदलने वाली कैंसर जैसी बीमारी लग गई है। इस कैंसर जैसी बीमारी का इलाज केवल एक डॉक्टर कर सकता है और वह है भारतीय मतदाता। लेकिन क्या भारतीय मतदाता भी ऐसा सोच रहा है? क्या वह समझ पा रहा है कि वंशो को दी जाने वाली उसकी स्वीकृति ने देश को कहा लाकर खड़ा कर दिया है?

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